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गुरुवार, ४ मे, २०१७

करसनभाई पटेल


जन्म: 13 अप्रैल, 1944, मेहसाना, गुजरात
कार्यक्षेत्र: उद्योगपति, निरमा समूह के संस्थापक
करसनभाई पटेल एक भारतीय उद्योगपति और निरमा समूह के संस्थापक हैं। निरमा समूह सौंदर्य प्रसाधन, साबुन, डिटर्जेंट, नमक, सोडा ऐश, प्रयोगशाला और चिकित्सकीय इंजेक्टिबल्स आदि का विनिर्माण करता है। सन 1969 में एक छोटे से कमरे से शुरू किया गया निरमा पाउडर का व्यवसाय डॉ पटेल की लगन और कड़ी मेहनत से फलता-फूलता गया और आज वे भारत के सबसे धनी व्यक्तियों की सूचि में स्थान रखते हैं। उन्होंने यह व्यवसाय अपनी नौकरी के साथ-साथ किया – कार्यालय जाते समय वे इसकी बिक्री करते थे और शाम को वापस आकर वे डिटर्जेंट का निर्माण और पैकिंग करते थे। एक आंकड़े के अनुसार सन 2004 निरमा में कुल 15000 से अधिक कर्मचारी थे और 3550 करोड़ रुपए से अधिक का कारोबार!
प्रारंभिक जीवन
करसनभाई पटेल का जन्म 13 अप्रैल 1944 को गुजरात के मेहसाना में एक सामान्य किसान परिवार में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मेहसाना के स्थानीय स्कूल में हुई और 21 साल की उम्र में उन्होंने राशन शाष्त्र विषय के साथ बी.एस.सी की पढ़ाई पूरी की और एक प्रयोगशाला सहायक (पहले लालभाई समूह के अहमदाबाद स्थित न्यू कॉटन मिल्स में और फिर गुजरात सरकार के खनन और भूविज्ञान विभाग में) के तौर पर नौकरी करने लगे।
निरमा की शुरुआत
सन 1969 में उन्होंने अपने घर के पिछवाड़े में निरमा (उनकी बेटी के नाम पर) डिटर्जेंट का निर्माण कर उसे खुद ही अपनी साइकिल पर घूम-घूम कर बेचना प्रारंभ किया। यह कार्य वो दफ्तर से आने के बाद शाम में करते थे और अगले दिन सुबह दफ्तर जाते वक़्त 15-20 पैकेट साइकिल पर बेचते थे। उन्होंने इस डिटर्जेंट पाउडर की कीमत मात्र 3 रुपये रखा जो और पाउडरों के मुकाबले लगभग ¼ था। लोगों को सस्ता पाउडर जाँच गया और देखते-देखते निरमा पाउडर सफल हो गया। लगभग तीन साल बाद उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और अहमदाबाद के पास एक छोटी फैक्ट्री लगा ली। बड़े कम समय में निरमा ब्रांड गुजरात और महाराष्ट्र में स्थापित हो गया।
बेहतर गुणवत्ता और कम कीमत ने निरमा डिटर्जेंट पाउडर को हर गृहणी का पसंदीदा पाउडर बना दिया। इसके बाद करसनभाई ने रेडियो और टेलीविज़न पर प्रचार के माध्यम से इसे देश के घर-घर में पहुंचा दिया। निरमा ने डिटर्जेंट बाज़ार में एक क्रान्ति ला दी और इसके साथ ही एक नए सेगमेंट की स्थापना भी कर दी। उस समय डिटर्जेंट और साबुन के बाज़ार पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों जैसे हिंदुस्तान लीवर (जो सर्फ पाउडर 13 रुपये/किलो के भाव पर बेचते थे) का प्रभुत्व और दबदबा था पर करसनभाई पटेल ने अपनी सूझ-बूझ से दस साल के अन्दर ही निरमा को सबसे ज्यादा बिकने वाला डिटर्जेंट पाउडर बना दिया। इस प्रकार निरमा ब्रांड कम कीमतवाले डिटर्जेंट और टॉयलेट साबुन के लिए लगभग एक पर्यायवाची नाम बन गया।
सन 2004 आते–आते निरमा ने लगभग 14000 लोगों को रोज़गार दे दिया था।
सस्ते डिटर्जेंट बाज़ार में अपना पैर जमाने के बाद निरमा ने महसूस किया कि उच्च आयवर्ग को ध्यान में रखते हुए नए उत्पादों को लांच करना जरुरी है ताकि कंपनी मध्यम वर्ग के उपभोक्ताओं के साथ-साथ ऊपरी आय वर्ग में भी अपनी जगह बना सके। इस दृष्टि से निरमा ने प्रीमियम क्षेत्र में प्रवेश किया जिसके अंतर्गत निरमा ने ‘निरमा बाथ’, ‘निरमा ब्यूटी सोप’ और प्रीमियम पाउडर ‘सुपर निरमा डिटर्जेंट’ जैसे उत्पादों को बाज़ार में उतारा। निरमा ने शैम्पू और टूथपेस्ट के क्षेत्र में भी पाँव पसारने की कोशिश की पर आशातीत सफलता नहीं मिली। निरमा ने ‘शुद्ध’ नाम से खाने का नमक भी बाज़ार में उतारा जो सफल रहा।
साबुन बाज़ार में निरमा की लगभग 20 प्रतिशत हिस्सेदारी है जबकि डिटर्जेंट पाउडर के क्षेत्र में लगभग 35 प्रतिशत बाज़ार निरमा के कब्ज़े में है।
शिक्षा के क्षेत्र में
सन 1995 में करसनभाई पटेल ने अहमदाबाद में ‘निरमा इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी’ की स्थापना की। इसके बाद एक प्रबंधन संस्थान की भी स्थापना की गयी। बाद में दोनों संस्थान ‘निरमा यूनिवर्सिटी ऑफ़ साइंस एंड टेक्नोलॉजी’ के अंतर्गत आ गए। इन संस्थानों को ‘निरमा एजुकेशन एंड रिसर्च फाउंडेशन’ द्वारा संचालित किया जाता है।
सन 2004 में ‘निरमालैब्स’ की भी स्थापना की गयी।
सन 1990 के दशक से निरमा एक ऐसा उपभोक्ता ब्रांड बन गया जो डिटर्जेंट, साबुन, और व्यक्तिगत देखभाल के उत्पादों के बाज़ार में स्थापित हो गया था। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात थी कम कीमत पर भी अच्छी गुणवत्ता के उत्पाद। साबुन और डिटर्जेंट बाजार में अन्य बड़े और प्रतिस्पर्धी ब्रांडों के होते हुए भी निरमा की सफलता का श्रेय इसके वितरण की पहुंच और बाजार में इसकी पैठ के कारण संभव हो सका था। आज निरमा के नेटवर्क में लगभग 400 वितरक और 2 लाख से अधिक खुदरा दुकानें शामिल हैं। इस विशाल नेटवर्क के कारण निरमा अपने उत्पादों को छोटे छोटे गांवों तक उपलब्ध कराने में सक्षम हो सका है।
अपने आपको देश में स्थापित करने के बाद करसनभाई पटेल ने अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में अपने कदम बढ़ाये और बांग्लादेश में एक संयुक्त उद्यम स्थापित किया। इसके बाद उन्होंने चीन, अफ़्रीका और बाकी एशियन देशों की तरफ भी रुख किया। सन 2007 में उन्होंने अमेरिकी कच्चे माल की कंपनी ‘सीर्लेस वैली मिनरल्स इंक’ का अधिग्रहण कर लिया और दुनिया के शीर्ष सोडा ऐश निर्माताओं में शामिल हो गए।
निरमा देश के उन कुछ चुनिन्दा ब्रांडों में से है जिन्हें एक पूर्ण भारतीय ब्रांड की तरह पहचाना जाता है। निरमा ने करसनभाई पटेल के नेतृत्व में स्थापित और शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर विजय हासिल की और अपने अनूठे विपणन माध्यमों और तरीकों से उपभोक्ताओं का दिल जीता।
पुरस्कार और सम्मान
निरमा की इस अपार सफलता के पीछे करसन भाई पटेल का हाथ रहा है। देश की अर्थव्यवस्था और उद्योग में उनके योगदान के लिए उन्हें समय-समय पर विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।
  • वे दो बार साबुन और डिटर्जेंट के विकास परिषद के अध्यक्ष चुने गए
  • गुजरात डिटर्जेंट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष बनाये गए
  • नई दिल्ली के लघु इंडस्ट्रीज एसोसिएशन द्वारा उद्योग रत्न की उपाधि से विभूषित किये गए
  • उन्हें गुजरात के वाणिज्य और उद्योग चैंबर, अहमदाबाद, द्वारा सन 1990 में ‘उत्कृष्ट उद्योगपति’ के सम्मान से नवाज़ा गया
  • सन 1998 में गुजरात व्यवसायी पुरस्कार से सम्मानित किये गए
  • रोटरी इंटरनेशनल द्वारा कॉर्पोरेट गवर्नेंस में उत्कृष्टता पुरस्कार दिया गया
  • वर्ष 2001 में उन्हें फ्लोरिडा अटलांटिक विश्वविद्यालय, फ्लोरिडा, संयुक्त राज्य अमेरिका, द्वारा मानद डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया

सोमवार, २० मार्च, २०१७

Sam Pitroda


बहुत समय नहीं हुआ जब भारत में टेलीफ़ोन को एक पेपरवेट की तरह इस्तेमाल किया जाता था.
टेलीफ़ोन का उपकरण इतना भारी हुआ करता था कि बहुत से लोग उसे इस डर से नहीं उठाते थे कि उन्हें कहीं हर्निया न हो जाए.
रेहान फ़जल की विवेचना यहां सुनें.
एक मज़ाक ये भी प्रचलित था कि कभी-कभी अभिभावक अपने शरारती बच्चों को नियंत्रण में लाने के लिए इसके भारी रिसीवर का इस्तेमाल किया करते थे.
कहने का मतलब ये कि टेलीफ़ोन को आपस में संपर्क स्थापित करने के लिए संयोगवश ही इस्तेमाल किया जाता था. ‘डेड टेलीफ़ोन’ भारतीय संस्कृति का एक प्रचलित मुहावरा बन गया था.
यहाँ तक कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का निवास भी इससे अछूता नहीं रहा था. भारत के हर 100 में से सिर्फ 0.4 फ़ीसदी लोगों के पास फ़ोन थे. इनमें से 55 फ़ीसदी फ़ोन शहरी आबादी के सात फ़ीसदी लोगों के पास थे.
इस सब को बदलने का श्रेय अगर किसी एक शख्स को दिया जा सकता है तो वो हैं सैम पित्रोदा.
सैम के सफ़र की शुरुआत ओडिशा के बोलांगीर ज़िले के एक छोटे से गाँव तीतलागढ़ में हुई थी. सैम के दादा बढ़ई और लोहार का काम किया करते थे.
उस ज़माने में सैम का सबसे प्रिय शगल होता था अपने घर के सामने से गुज़रने वाली रेलवे लाइन पर दस पैसे का सिक्का रखना और ट्रेन के गुज़रने के बाद कुचले हुए सिक्के को ढूंढ कर जमा करना.
सैम के पिता चाहते थे कि वो गुजराती और अंग्रेज़ी सीखें. इसलिए उन्होंने उन्हें और उनके बड़े भाई मानेक को पढ़ने के लिए पहले गुजरात में विद्यानगर के शारदा मंदिर बोर्डिंग स्कूल और फिर बड़ोदा विश्वविद्यालय भेजा.
वहाँ से उन्होंने भौतिकी शास्त्र में पहली श्रेणी में एमएससी की परीक्षा पास की. वहीं उनकी मुलाकात उनकी भावी पत्नी अनु छाया से हुई. जब उन्होंने अनु को पहली बार देखा तो वो धूप में अपने बाल सुखा रही थीं.


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सैम याद करते हैं, "मैंने उसे देखते ही पहली निगाह में अपना दिल दे दिया. उस समय मैं सिर्फ़ बीस साल का था. आज की तरह उस समय भी मेरे पास डायरी हुआ करती थी. उसमें मैंने लिखा कि मैं इस लड़की से शादी करूँगा."
लेकिन अनु तक अपनी भावना पहुंचाने में सैम को डेढ़ साल लग गए. अमरीका जाने से पहले वो उनका हाथ मांगने उनके पिता से मिलने गोधरा गए. अभी उन्होंने दरवाज़े पर दस्तक दी ही थी कि उनका कुत्ता दौड़ता हुआ आया और उसने सैम के हाथ में काट खाया.
सैम उससे इतने परेशान हुए कि उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला और अनु का हाथ मांगने की बात उनके दिल में ही रह गई.


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जब सैम शिकागो पहुंचे तो उन्हें अमरीकी संस्कृति से सामंजस्य बैठाने में ख़ासी मशक्कत करनी पड़ी. सैम याद करते हैं, "वहाँ सब कुछ नया था. हर चीज़ अजीब सी लगती थी... लोग अजीब थे... खाना अजीब था... बातें अजीब थीं.. भाषा अजीब थी. पहली बार मैंने वहाँ डोर नॉब देखा. हमारे यहाँ तो सांकल होती थी. रिवॉल्विंग दरवाज़ा पहली बार मैंने वहाँ देखा. हमारी समझ में आ गया कि जिंदगी अब आगे देखने के लिए है, पीछे देखने के लिए नहीं."
वो बताते हैं, "मेरे लिए सबसे बड़ा साँस्कृतिक झटका ये था कि एक साथ कई लोग बाथरूम में सामूहिक तौर पर नहाया करते थे और वो भी बिल्कुल नंगे होकर और उस पर तुर्रा ये कि नहाते समय वो आपस में बातें भी किया करते थे. मुझे ऐसा करते हुए बहुत शर्म आई. इसलिए मैंने उससे बचने के लिए रात के बारह बजे नहाना शुरू कर दिया ताकि हॉस्टल के बाथरूम में कोई शख़्स मौजूद न हो."
पढ़ाई ख़त्म करने के बाद सैम ने टेलीविज़न ट्यूनर बनाने वाली कंपनी ओक इलेक्ट्रिक में काम करना शुरू कर दिया. तब तक सैम का नाम सत्यनारायण पित्रोदा हुआ करता था.
जब उनको अपनी तनख़्वाह का चेक मिला तो उसमें उनका नाम सैम लिखा हुआ था. जब वो वेतन का काम देखने वाली महिला के पास इसकी शिकायत ले कर गए तो उसने कहा कि तुम्हारा नाम बहुत लंबा है, इसलिए मैंने इसे बदल दिया.


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सैम ने सोचा कि कोई कैसे उनकी मर्ज़ी के बगैर उनका नाम बदल सकता है लेकिन फिर उनको ख़्याल आया कि अगर वो चेक में नाम बदलने पर ज़ोर देंगे तो उन्हें इसे भुनाने में दो हफ़्ते और लग जाएंगे. ये नाम उनसे चिपक गया और वो सत्यनारायण से सैम हो गए.
1974 में वो दुनिया की सबसे पहली डिज़िटल कंपनियों में से एक विस्कॉम स्विचिंग में काम करने लगे. 1980 में रॉकवेल इंटरनेशनल ने इसे ख़रीद लिया. सैम इस कंपनी के वाइस प्रेसिडेंट बन गए और इसमें उनकी हिस्सेदारी भी हो गई.
उन्होंने इसे बेचने का फ़ैसला किया और मुआवज़े में उन्हें चालीस लाख डॉलर मिले. 1980 में वो दिल्ली आए. इससे पहले वो पंद्रह साल की उम्र में एक कॉलेज टूर पर सिर्फ़ दो दिन के लिए दिल्ली आए थे.
वो उस समय दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ ताज होटल में रुके हुए थे. वहाँ पहुंचते ही उन्होंने अपनी पत्नी अनु को टेलीफ़ोन करने की कोशिश की, लेकिन टेलीफ़ोन लगा ही नहीं. अगले दिन सुबह जब उन्होंने अपने होटल की खिड़की से झाँका तो देखा कि नीचे सड़क पर डेड फ़ोन की एक सांकेतिक शव यात्रा निकल  रही थी
शव की जगह टूटे हुए, काम न करने वाले फ़ोन रखे हुए थे और लोग ज़ोर-ज़ोर से नारे लगा रहे थे. सैम ने उसी समय तय किया कि वो भारत की टेलीफ़ोन व्यवस्था को ठीक करेंगे.
26 अप्रैल, 1984 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सी-डॉट की शुरुआत की मंज़ूरी दी. सैम को एक रुपए वार्षिक वेतन पर सी-डॉट का प्रमुख बनाया गया.
सैम बताते हैं, "रूज़वेल्ट के समय में अमरीका में लोगों ने देश को अपनी मुफ़्त सेवाएं दी थीं. हमारे जो दोस्त यहाँ थे रजनी कोठारी, आशीष नंदी, धीरू भाई सेठ उन सबने कहा कि अगर तुम्हें देश की सेवा करनी हो तो दिल लगा कर काम करो."
वो कहते हैं, "मैंने सोचा कि ये समय भारत को देने का है, उससे लेने का नहीं. भारत ने मुझे बहुत कुछ दिया था. मैंने दस डालर में यहाँ से मास्टर्स किया फ़िज़िक्स में. उस ज़माने में तनख़्वाह तो बहुत थी नहीं. दस हज़ार रुपए महीने तनख़्वाह ले .
इससे पहले सैम ने इंदिरा गाँधी और उनके मंत्रिमंडल के सामने एक घंटे का प्रेजेंटेशन दिया.
सैम कहते हैं, "हमने बंगलौर में हार्डवेयर डिज़ाइन करना शुरू किया. सॉफ़्टवेयर के लिए हमें दिल्ली में जगह नहीं मिल रही थी. राजीव गांधी ने सलाह दी कि आप एशियाड विलेज जाइए. जगह तो अच्छी थी लेकिन वहाँ एयरकंडीशनिंग नहीं थी. दिल्ली की गर्मी में एयरकंडीशनिंग न हो तो सॉफ़्टवेयर का काम नहीं हो सकता था. अकबर होटल में जगह ख़ाली थी. हमने वहाँ दो फ़्लोर ले लिए."
वो बताते हैं, "शुरू में फ़र्नीचर नहीं था. हमने छह महीने तक खटिया पर बैठ कर काम किया. हमने 400 युवा इंजीनयरों को भर्ती किया. उन्हें ट्रेन किया. पता चला कि इनमें कोई लड़की नहीं है. फिर लड़कियों को लाया गया उसमें."


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कुछ ही महीनों में भारत के हर गली कूचे में पीले रंग के एसटीडी या पीसीओ बूथ दिखाई देने लगे. इस पूरे अभियान में बीस लाख लोगों को रोज़गार मिला, ख़ास तौर पर पिछड़े और शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को.
फ़ोन भारतीय लोगों की सामाजिक गतिविधियों का केंद्र बन गए. बूथ चलाने वाले लोगों ने वहाँ पर सिगरेट, टॉफ़ियाँ और यहाँ तक कि दूध भी बेचना शुरू कर दिया. टेलीफ़ोन अब विलासिता की चीज़ न रह कर रोज़मर्रा की ज़रूरत की चीज़ बन गया.
सैम बताते हैं, "हमने पहले ग्रामीण एक्सचेंज बनाया. फिर बड़ा डिजिटल एक्सचेंज बनाया. फिर तो दूर संचार क्रांति शुरू हो गई क्योंकि लोग कुशल हो गए. वो बीज था जो हमने बोया. हर शख्स जिसने कभी सी-डॉट में काम किया, वो आज या तो कोई बड़ा मैनेजर है, प्रोफ़ेसर है या उद्यमी है. हमने एक दक्षता पैदा की और फिर मल्टीप्लायर प्रभाव शुरू हो गया."


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इस बीच सैम को 'टेलीकॉम आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया. उस दौरान मशहूर कंपनी जनरल इलेक्ट्रिक के अध्यक्ष जैक वेल्च भारत आए. वो राजीव गांधी से मिलने वाले थे लेकिन वो किसी ज़रूरी काम में व्यस्त थे.
उन्होंने सैम को उनसे मिलने भेजा. सैम ने उन्हें नाश्ते पर आमंत्रित किया. वेल्च ने पहला सवाल किया, "हमारे लिए आपके पास क्या प्रस्ताव है?"
सैम ने कहा, "हम आपको सॉफ़्टवेयर बेचना चाहते हैं." वेल्च बोले, "लेकिन हम तो यहाँ सॉफ़्टवेयर ख़रीदने नहीं आए हैं. हमारी मंशा तो आपको इंजन बेचने की है."
सैम ने कहा कि हमारा आपसे इंजन ख़रीदने का कोई इरादा नहीं है. वेल्च ने कहा कि हम इतनी दूर से जिस काम के लिए आए हैं, आप उस पर बात तक करने के लिए तैयार नहीं हैं. अब क्या किया जाए?
सैम ने कहा आइए नाश्ता करते हैं. लंबी चुप्पी के बाद वेल्च ने कहा, "बताइए आप सॉफ़्टवेयर के बारे में कुछ कह रहे थे." सैम ने 35 एमएम की स्लाइड पर अपना प्रेजेंटेशन शुरू किया.
वेल्च ने उसके एक-एक शब्द को ग़ौर से सुना और कहा, "आप हमसे क्या चाहते हैं?"
सैम का जवाब था, "एक करोड़ डॉलर का सॉफ़्टवेयर का ऑर्डर." वेल्च ने कहा, "मैं अपनी कंपनी के चोटी के ग्यारह लोगों को आपके पास भेजूँगा. आप उन्हें कनविंस करिए कि आपके प्रस्ताव में दम है."
एक महीने बाद जीई के चोटी के अधिकारी दिल्ली पहुंचे. सैम ने उस समय नई-नई बनी कंपनी इंफ़ोसिस के साथ उनकी बैठक तय की. इंफ़ोसिस ने कहा कि उनका तो कोई दफ़्तर भी नहीं है.
सैम ने कहा आप जीई वालों को ये बात मत बताइए और उनसे किसी पांच सितारा होटल में मिलिए. वो बैठक हुई और जीई ने एक करोड़ डॉलर का सॉफ़्टवेयर का पहला ऑर्डर दिया और यहीं से भारत के सॉफ़्टवेयर कंसल्टिंग उद्योग की नींव रखी गई.
लेकिन इस बीच राजीव गाँधी चुनाव हार गए. 21, मई, 1991 को अचानक राजीव गाँधी की हत्या हो गई. इसके बाद सैम का भारत में मन नहीं लगा.
सैम याद करते हैं, "हमने सिर्फ़ एक प्रधानमंत्री ही नहीं खोया, मैंने अपना सबसे प्यारा दोस्त खो दिया. ये एक इच्छा और एक सपने का अंत था. मैंने अपनी नागरिकता तक बदल दी थी. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए. मेरे सामने अंधेरा ही अंधेरा था और तभी मैंने पाया कि तब तक मेरे सारे पैसे ख़त्म हो गए थे. मैंने पिछले दस साल से कोई वेतन नहीं लिया था. मैंने सोचा कि अब समय आ गया है वापस अमरीका जाने का."
ये बात सुनने में थोड़ी अजीब सा लग सकती है कि सैम पित्रोदा ने काम करने की धुन में 1965 के बाद से कोई फिल्म नहीं देखी थी.


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उनके नज़दीकी दोस्त और पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी बताते हैं, "सैम पित्रोदा न तो शॉपिंग करने जाते हैं, न ही किसी जन्म दिन पार्टी में जाते हैं और न ही कभी फ़िल्म देखने जाते हैं. एक बार वो मेरे घर पर रुके हुए थे. उनकी पत्नी अनु भी उनके साथ थीं. मैंने उनसे कहा, चलिए फ़िल्म देखी जाए. सैम ने कहा फ़िल्म और मेरा दूर-दूर का वास्ता नहीं है. लेकिन मैं उन्हें ज़बरदस्ती थ्री ईडियट्स फ़िल्म दिखाने ले गया."
"जब हम फ़िल्म देख कर बाहर निकले तो अनु ने कहा आप का बहुत-बहुत धन्यवाद. मैंने कहा धन्यवाद देने की क्या ज़रूरत है. अनु ने कहा कि चालीस साल की वैवाहिक ज़िंदगी में हमने पहली बार साथ में कोई फ़िल्म देखी है."


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आज 73 साल की उम्र में सैम पित्रोदा जैसा बहुआयामी व्यक्तित्व मिलना मुश्किल है. वो बचपन से तबला बजाते हैं, चित्रकारी करते हैं और बेहतरीन संगीत सुनते हैं. ग़जलें सुनना उन्हें बेहद पसंद है.
इकोनॉमिस्ट और वॉल स्ट्रीट जर्नल पढ़ना उन्हें पसंद है. हाल मे वियना में उनके चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी. संगीत सुनने का उन्हें बहुत शौक है ख़ासतौर से ड्राइव करते हुए.
बचपन में उन्होंने जो फ़िल्में देखीं थीं पचास के दशक में 'बरसात', 'नागिन', 'काग़ज़ के फूल'... 'प्यासा' और जब भी इन फ़िल्मों के गीत वो सुनते हैं, अपने आप को गुनगुनाने से नहीं रोक पाते.

शुक्रवार, ३ मार्च, २०१७

Kunwar Sachdeva एक सफल उद्योजक


कुँवर सचदेव – Kunwer Sachdeva भारत की लीडिंग पॉवर सोल्यूशन कंपनी सु-काम (Su-Kam) Sukam solar inverter के संस्थापक और एम् डी है और साथ ही वे एक महान खोजकर्ता, मार्केटर, प्रेरणादायक वक्ता और उद्योजक भी है। सचदेव के सु-काम के सफलता की कहानी “मेक इन इंडिया” का सबसे अच्छा और सबसे बड़ा उदाहरण है।
सचदेव का जन्म एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था, लेकिन सचदेव ने कभी भी अपनी आर्थिक परिस्थितियों को अपनी सफलता के बीच में नही आने दिया। और सिर्फ 15 वर्ष की आयु में ही वे एक महान सफल उद्योजक बन गए। अपने व्यवसाय की शुरुवात उन्होंने अपने बड़े भाई के साथ मिलकर साइकिल पर पेन बेचते हुए की थी और बाद में उन्होंने एक सफल केबल टीवी कम्युनिकेशन व्यवसाय की स्थापना दिल्ली में की थी। एक खोजकर्ता के रूप में उन्होंने जल्द ही भारत के पॉवर बैकअप इंडस्ट्री के विकास और उनकी जरूरतों को भाँप लिया था और 1998 में ही उन्होंने सु-काम पॉवर सिस्टम की स्थापना करने के लिए केबल टीवी के व्यवसाय को बंद करने की ठान ली।

कुछ ही सालो में कड़ी मशक्कत और महेनत करते हुए उन्होंने आज सु-काम को भारत की मुख्य कंपनियों में से एक बनाया। आज सु-काम इंडियन मल्टीनेशनल कारपोरेशन है और इसे भारत की सबसे विकसित और तेज़ी से बढ़ने वाली इंडस्ट्री में से एक माना जाता है। यह कंपनी तेज़ी से विकसित होने वाली टॉप 500 कंपनियों की सूचि में भी शामिल है। सचदेव ने भी तक़रीबन 90 देशो तक अपनी कंपनी को पहुचाया है और इसका लक्ष्य अफ्रीका और एशिया के ज्यादातर भागो को कवर करना ही है।
खोजकर्ता – यूपीएस / इनवेटर इंडस्ट्री में खोज
दिल्ली यूनिवर्सिटी से मैथमेटिकल स्टेटिस्टिक्स और लॉ की डिग्री हासिल करने के साथ ही और साथ ही बिना किसी टेक्निकल बैकग्राउंड के होने के बावजूद उन्होंने पॉवर इलेक्ट्रॉनिक्स में महारत हासिल कर रखी थी। विविध व्यवसायों को सँभालते हुए भी वे सु-काम (Su-Kam) के आर & डी डिवीज़न के हेड बने।
इंडियन पॉवर बैकअप इंडस्ट्री में टेक्नोलॉजी और डिजाईन के लिए पेटेंट फाइल करने वाले सचदेव पहले भारतीय उद्योगपति थे। विश्व के पहले प्लास्टिक बॉडी इन्वर्टर के अविष्कार का श्रेय भी उन्हें ही दिया जाता है और उनके इस अविष्कार को इंडिया टुडे ने “इनोवेशन ऑफ़ द डिकेड” का भी नाम दिया। कुंवर ने वर्ल्ड क्लास टेक्नोलॉजीज जैसे मोस्फेट (MOSFET), माइक्रो कंट्रोलर बेस्ड और DSP साइन वेव का अविष्कार कर पॉवर बैकअप इंडस्ट्री में क्रांति ला दी थी। उन्होंने भारत को “होम यूपीएस” भी दिया जिसमे यूपीएस और इन्वर्टर दोनों के गुण थे। सु-काम (Su-Kam) के आने से पहले इन्वर्टर उद्योग पर 100 से भी ज्यादा लोगो का शासन था जो घटिया माल बेच रहे थे – लेकिन कुंवर ने पुरे इन्वर्टर उद्योग को अपने अविष्कार से चुनौती दी रखी थी।
कुंवर अपनी उपलब्धियों से कभी संतुष्ट नही थे और उनमे हमेशा कुछ नयी टेक्नोलॉजी का अविष्कार करने की भूक लगी रहती। कुंवर को कई बार लगता था की, “यदि वर्तमान में सभी इलेक्ट्रॉनिक टच स्क्रीन और वाय-फाई से जुड़े है तो होम यूपीएस क्यु नही?” इसी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने यूपीएस की टेक्नोलॉजी में बदलाव किये। और आज कुंवर अपना पहला टच स्क्रीन यूपीएस लांच करने के लिए तैयार है जिसमे वाय-फाई की सुविधा भी दी गयी है। एक दिन ऐसा भी होगा शायद ही किसी ने सोचा होगा।
पॉवर बैकअप इंडस्ट्री के विकास में उनके बहुत से महत्वपूर्ण योगदानो को देखते हुए उन्हें “इन्वर्टर मैन ऑफ़ इंडिया” के नाम से भी जाना जाता है।
दी सोलर मैन ऑफ़ इंडिया (The Solar Man of India) –
टेक्नोवेशन के प्रति कुंवर का प्यार हमेशा बढ़ता ही गया था। ग्रीन एनर्जी का निर्माण करने में उन्हें काफी रूचि थी उनकी इच्छा थी की भारत में हर जगह पर ग्रीन एनर्जी का निर्माण होना चाहिए। एक दशक पहले सौर उर्जा के उपकरण आने वाले दशको में क्रांति लायेंगे। उनके घर से सम्बंधित सौर उपकरणों में सोलरकॉन (एक्सिस्टिंग इन्वर्टर को सोलर इन्वर्टर में बदलता है) और ब्रेनी (दुनियाँ का पहला हाइब्रिड सोलर होम यूपीएस) शामिल है।
उन्होंने बहुत से छोटे हाउस रिमोट से लेकर बड़ी इंडस्ट्री के लिए भी सोलर उपकरणों की खोज की है। यूनिक सोलर DC सिस्टम के निर्माण में भी उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है। कुंवर के कठिन परिश्रम के बाद ही सु-काम (Su-kam) सर्वाधिक मार्किट शेयर पाने में सफल रही। फ़िलहाल सु-काम का लक्ष्य भारत के हर एक घर को सोलर एनर्जी से जोड़ना है।
उनका मंत्र यही है, “I innovate therefore I am”
बेहतरीन विक्रेता –
सु-काम की स्थापना के पहले वर्षो में ही कुंवर ने मार्केटिंग और एडवरटाइजिंग के महत्त्व को जान लिया था और इसी वजह से सु-काम अखबार में विज्ञापन देने वाली पहली इन्वर्टर कंपनी बनी। कुंवर के पॉवर सोल्यूशन सेक्टर में आने से पहले किसी भी कंपनी का विशिष्ट प्रोडक्ट मैन्युअल या कैटेलॉग नही था लेकिन कुंवर ने इसे बदलकर सु-काम के सभी प्रोडक्ट का एक बेहतरीन और आकर्षित मैन्युअल प्रोडक्ट बनाया था।
कुंवर ने अपमी कंपनी सु-काम के लिए बेहतरीन मार्केटिंग स्ट्रेटेजी बना रखी थी और इससे पहले किसी कंपनी ने मार्केटिंग स्ट्रेटेजी नही बनायी थी लेकिन इसके बाद 90 के दशक में सभी ने उनके रास्तो पर चलते हुए मार्केटिंग स्ट्रेटेजी बनाना शुरू किया। और इसके बाद सु-काम प्रसिद्ध ढाबो के बोर्ड स्वयं बनाकर उन्हें गिफ्ट करती थी और उनपर अपने उपकरणों का विज्ञापन भी देती थी। इसके पीछे एक कहानी भी है जिसके अनुसार एक बार कुंवर कश्मीर में दाल सरोवर देखने गए थे और वहा उन्होंने बहुत सी खुबसूरत “सीकर नाव” भी देखि और अगले ही दिन वे सभी नाव सु-काम में परिवर्तित हो गयी।
कुंवर उन महान उद्योजको में से एक है जिन्होंने इंटरनल ब्रांडिंग के महत्त्व को समझा। कुंवर ने सु-काम कल्चर को इस तरह से सजाया था की उनका पूरा स्टाफ सभी त्यौहार (इसमें सु-काम का खेल सप्ताह भी शामिल है) ख़ुशी से मनाते थे, उनका स्टाफ किसी बड़े परिवार से कम नही था।
एतव और अभिनेता रवि किशन के साथ मिलकर कुंवर ने अपना पहला रियलिटी टीवी शो इंडिया ग्रेटेस्ट सेल्समेन – सेल का बाज़ीगर भी लांच किया। इससे पहले विक्रेता लोगो को प्रेरित करने के लिए किसी ने भी इस तरह के शो को नही देखा था। इस शो को बहुत लोगो ने पसंद किया और हजारो और लाखो लोगो ने इसमें भाग लिया। और इसके विजेता आज सु-काम में काम करते है।
भारतीय ब्रांड को वैश्विक बनाना –
कुंवर सचदेव का हमेशा से ही यह मानना था की यदि आप सपने देख सकते हो तो तो आप उन्हें पूरा भी कर सकते हो। और उनकी इसी सोच ने सु-काम को भारत की सबसे बड़ी पॉवर बैकअप सोल्यूशन कंपनी बनाया। वे अपने इस भारतीय ब्रांड को वैश्विक स्तर पर प्रसिद्ध करने चाहते थे और ऐसा करने में वे सफल भी हुए। अपने ब्रांड को वैश्विक स्तर पर फ़ैलाने के लिए उन्होंने कई विदेश यात्राये भी की थी।
कुंवर के मार्गदर्शन में ही सु-काम तक़रीबन 90 देशो में स्थापित हो सकी। सु-काम अब इंटरनेशनल ब्रांड बन चूका था और इसके साथ ही अफ्रीका और नेपाल जैसे देशो में सु-काम को कई अवार्ड भी मिले। अफ्रीका में लोग चीनी और अमेरिकन कंपनियों की तुलना में इस “मेड इन इंडिया” ब्रांड पर ज्यादा भरोसा करते है।
अवार्ड और नामनिर्देशन –
उद्योगपति, टेक्नोलॉजी और इनोवेशन के चलते उन्हें बहुत से पुरस्कार मिले है। जिसमे मुख्य रूप से भारत सरकार द्वारा दिया गया “भारत शिरोमणि” और एर्न्स्ट एंड यंग का “साल के सर्वश्रेष्ट उद्योगपति” अवार्ड शामिल है।
आज कुंवर सचदेव की जीवनी को देखते हुए हम निश्चित तौर पे यह कह सकते है की किसी भी व्यक्ति को सफल होने के लिए डिग्री की जरुरत नही होती, बस आपका टैलेंट ही आपको सफल आदमी बनाता है। क्या आप जानते है कि बिल गेट्स्और फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकेरबेर्ग कॉलेज से निकाले गए (Dropout) हैं, फिर भी वे सफल हैं। क्योंकि दोस्तों,
“रात नही ख्वाब बदलता है,
मंजिल नही कारवां बदलता है,
जज्बा रखे हरदम जीतने का क्योंकि
किस्मत चाहे बदले या न बदले
लेकिन वक्त जरुर बदलता है।”

मंगळवार, २४ जानेवारी, २०१७

Anand Mahindra


जन्म : 1 मई, 1955 मुम्बई, भारत
वर्तमान : महिंद्रा एंड महिंद्रा समूह के उपाध्यक्ष और प्रबंध निदेशक
कार्यक्षेत्र :­­ वाहन, बैंक एवं टेक्नोलॉजी जगत के प्रमुख उद्योगपति
आनंद महिंद्रा, महिंद्रा समूह की प्रमुख कंपनी ‘महिंद्रा एंड महिंद्रा लिमिटेड’ के उपाध्यक्ष और प्रबंध निदेशक हैं. महिंद्रा समूह भारत के सबसे प्रतिष्ठित 10 शीर्ष औद्योगिक घरानों में से एक है. इस प्रसिद्ध समूह को लुधियाना (पंजाब) में आनंद के दादा बंधुओं जगदीशचंद्र व कैलाशचंद्र महिंद्रा (के.सी. महिंद्रा) द्वारा स्थापित किया गया था.
आनन्द महिंद्रा के कार्यकुशलता के परिणाम स्वरुप भारत सहित विश्व के अनेक देशों में महिंद्रा ट्रैक्टर,बोलेरो, एक्सयूवी500 और महिंद्रा स्कॉर्पियो जैसे वाहन ‘महिंद्रा उद्योग समूह’ की पहचान बन गए हैं. वित्तीय सेवाओं, पर्यटन, इंफ्रास्ट्रक्चर डेव्हलपमेंट, ट्रेड एवं लॉजिस्टिक्स क्षेत्रों में भी समूह की महत्वपूर्ण भागेदारी है, जो दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है.
ये वर्तमान में प्रतिष्ठित ‘हार्वर्ड बिजनेस स्कूल’ के एशिया-पैसिफिक एडवाइजरी बोर्ड के सदस्य, हार्वर्ड बिजनेस स्कूल के डीन के सलाहकार समिति के सदस्य, एशिया बिजनेस काउंसिल के सदस्य, राष्ट्रीय खेल विकास कोष (NSDF), भारत सरकार के कार्यकारी परिषद् के सदस्य, एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च केंद्र की राष्ट्रीय परिषद् और राष्ट्रीय बैंक प्रबंधन संस्थान पुणे के शासी बोर्ड के सदस्य भी हैं.
प्रारम्भिक जीवन
आनंद महिंद्रा का जन्म 1 मई, 1955 को मुंबई, महाराष्ट्र में एक प्रसिद्ध एवं संम्पन्न व्यवसायी परिवार में हुआ था. इनके पिता का नाम हरीश महिंद्रा और मां का नाम इंदिरा महिंद्रा था. वर्ष 1977 में इन्होंने अमेरिका के हार्वर्ड कॉलेज (कैम्ब्रिज, मैसाचुसेट्स) के ‘डिपार्टमेंट ऑफ विज्युल एंड एनवायरॉनमेंटल स्टडीज’, से स्नातक की शिक्षा प्राप्त की. वर्ष 1981 में इन्होंने ‘हार्वर्ड बिजनेस स्कूल’ (एचबीएस), बोस्टन, मैसाचुसेट्स से ‘बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन’ में स्नातकोत्तर (एमबीए) की शिक्षा प्राप्त की. आगे चलकर इनका विवाह अनुराधा महिंद्रा से हुई, जिनसे इनकी दो बेटियां हैं. पत्नी अनुराधा प्रसिद्ध पत्रिका ‘वर्व’ और ‘मेंस वर्ल्ड’ की संपादक तथा ‘रोलिंग स्टोन इंडिया’ की एडिटर-इन-चीफ हैं.
ऑटो/मोटर व्यावसाय के क्षेत्र में इनका योगदान
एमबीए की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वर्ष 1981 में आनंद महिंद्रा भारत लौट आए और इन्होंने यहां ‘महिन्द्रा यूजाइन स्टील कंपनी’ (MUSCO) में वित्त निदेशक के कार्यकारी सहायक के रूप में अपना पहला कार्यभार ग्रहण किया. वर्ष 1989 में जब महिंद्रा एंड महिंद्रा समूह का विस्तार हुआ तो ये ‘रियल स्टेट डेवलपमेंट और हॉस्पिटैलिटी’ से सम्बंधित इकाई के अध्यक्ष बने. वर्ष 1991 में इन्हें ‘महिंद्रा एंड महिंद्रा समूह’ के उप-प्रबंध निदेशक का कार्यभार सौंपा गया था. इन्होंने वर्ष 1997 में कंपनी में प्रबंध निदेशक के रूप में जिम्मेदारी ली तथा इसके बाद वर्ष 2003 में ये कंपनी के वाइस चेयरमैन बनाए गये. इसके अतिरिक्त ये ‘कोटक महिंद्रा फाइनेंस लिमिटेड’ के सह-प्रमोटर बने और वर्ष 2003 में इन्होंने इसे बैंक के रूप में तब्दील कर दिया. वर्तमान में कोटक महिंद्रा बैंक भारत के अग्रणी निजी क्षेत्र के बैंकों में भी अपना विस्वसनीय स्थान बनाए हुए है. यह सब कुछ आनंद के कुशल प्रबंधन और नेतृत्व में ही किया गया था. परिणामत: महिंद्रा समूह ने सफलतापूर्वक वैश्विक उद्देश्यों और सफलताओं को प्राप्त करने के लिए कुछ निर्धारित मानकों को स्थापना की है. वर्ष 2002 में महिंद्रा एंड महिंद्रा समूह ने स्वदेशी तकनिकी पर विकसित कार (एसयूवी) के नए मॉडल को ‘स्कार्पियो’ नाम से लांच किया. जिसने कंपनी को वैश्विक स्तर पर अपनी अलग पहचान बनाने में सकारात्मक भूमिका निभाई है. इस प्रकार कंपनी अधिग्रहण और ग्रीनफील्ड दोनों व्यवसायों के माध्यम से बहुत विकसित हुई. महिंद्रा ने ‘सत्यम् कंप्यूटर सर्विसेज’ को वर्ष 2009 में तथा वर्ष 2010 में ‘रेवा इलेक्ट्रिक व्हीकल्स’ और ‘स्संग्योंग मोटर कंपनी’ को भी अधिगृहीत किया.
इन्होंने कंपनी को एक नए और अलग क्षेत्र में पहचान दिलाने के लिए ‘महिंद्रा सिस्टम एंड ऑटोमोटिव टेक्नोलॉजी’ की स्थापना की जो अब नए मॉड्यूल्स और बेहतर इंजीनियरिंग सेवाएं कंपनी के लिए उपलब्ध करा रहा है. इसके अलावा कंपनी ने ब्रिटेन और चीन में औद्योगिक संस्थानों के अधिग्रहण की रणनीतिक पर भी काम किया है. इन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका में तीन असेम्बलिंग संयंत्रों की स्थापना की है और अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों जैसे-रेनो, निसान और इंटरनेशनल ट्रक एंड इंजन कारपोरेशन, संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ संयुक्त उद्यम भी स्थापित किया है.
उद्योग संगठनों में योगदान
आनंद ने वर्ष 2003-04 में ‘भारतीय उद्योग परिसंघ’ के अध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया और आगे इन्होंने भारत के ऑटोमोटिव रिसर्च एसोसिएशन (एआरएआई) के अध्यक्ष के दायित्व का भी निर्वहन किया. ये भारत में हार्वर्ड बिजनेस स्कूल एसोसिएशन के सह-संस्थापक हैं, जो भारत में पेशेवर प्रबंधन की उन्नति के लिए समर्पित एक संगठन है. ये ‘दावोस’ में विश्व आर्थिक मंच के सह-अध्यक्ष भी हैं। आनंद को ‘नेशनल स्टॉक एक्सचेंज ऑफ इंडिया लिमिटेड’ में एक ‘जनप्रतिनिधि श्रेणी’ के निदेशक के रूप में चयनित किया गया है. इसके साथ ही ये ‘के.सी. महिंद्रा एजुकेशन ट्रस्ट’ के ट्रस्टी भी हैं, जो योग्य छात्रों को छात्रवृत्ति प्रदान करता है. ये भारत में ‘महिंद्रा यूनाइटेड वर्ल्ड कॉलेज’ के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के रूप में भी अपना योगदान दे रहे हैं.
शिक्षा तथा अन्य क्षेत्रों में योगदान
आनंद महिंद्रा ने अपनी मां इंदिरा महिंद्रा के नाम पर हार्वर्ड विश्वविद्यालय को 100 करोड़ डॉलर का योगदान वहां के मानविकी केंद्र की गतिविधियों का विस्तार करने के लिए दान के रूप में दिया है. इस विशाल धनराशि को आनंद ने होमी भाभा मानविकी केंद्र के निदेशक के नेतृत्व में वहां पर स्थित विशिष्ट संस्थानों के उन्नति और आधुनिकीकरण के लिए दिया है.
ये वर्ष 2005 में प्रारम्भ हुए ‘मुंबई महोत्सव’ के संस्थापक अध्यक्ष हैं. इसके अतिरिक्त ये ‘एशिया सोसायटी के अंतर्राष्ट्रीय परिषद्’, न्यूयॉर्क के सह-अध्यक्ष भी हैं.
पुरस्कार और सम्मान  
आनंद महिंद्रा को वर्ष 2004 में फ्रांस के राष्ट्रपति द्वारा विशेष सम्मान ‘ऑर्डर ऑफ मेरिट’ से सम्मानित किया गया था और इन्हें व्यवसाय के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए ‘राजीव गांधी पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया जा चुका है. वर्ष 2005 में इन्हें ‘पर्सन ऑफ द ईयर’ ऑटो मॉनिटर और ‘लीडरशिप अवार्ड’ अमेरिकन इंडिया फाउंडेशन द्वारा कॉर्पोरेट जगत में सामाजिक जिम्मेदारी के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं के लिए ‘महिंद्रा एंड महिंद्रा समूह’ को मिला था. वर्ष 2006 में इन्हें ‘सीएनबीसी एशिया बिजनेस लीडर’ पुरस्कार और ‘लुधियाना मैनेजमेंट एसोसिएशन’ द्वारा ‘वर्ष के उद्यमी पुरस्कार’ से नवाजा गया था. इसी क्रम में वर्ष 2007 में ‘एनडीटीवी प्रॉफिट’ ने इन्हें ‘वर्ष का सबसे प्रेरणादायक कॉर्पोरेट लीडर’ के सम्मान से सम्मानित किया था. इन्हें वर्ष 2008-2009 में बिजनेस लीडर के रूप में ‘इकॉनोमिक टाइम्स पुरस्कार’ भी प्राप्त हुआ था. हाल ही में आनंद को ‘डेली न्यूज एंड एनालिसिस’ द्वारा मुंबई के सबसे प्रभावशाली पुरुषों और महिलाओं में एक के रूप में चयनित किया गया है.
इनके ‘फार्म इक्विपमेंट सेक्टर’ को ‘जापान क्वालिटी मेडल’ प्राप्त हुआ है. यह सम्मान प्राप्त करने वाली विश्व की यह एकमात्र ट्रैक्टर कंपनी है. ‘डेमिंग पुरस्कार’ जीतने वाली भी यह विश्व की एकमात्र कंपनी है.

सुनिल मित्तल


जन्म: 23 अक्टूबर 1957
व्यवसाय/पद/: भारती समूह के संस्थापक और अध्यक्ष
सुनील भारती मित्तल एक भारतीय उद्योगपति, समाज सेवी और भारत के सबसे बड़े टेलीकॉम कंपनी एयरटेल के चेयरमैन हैं। उनका नाम दुनिया के गिने-चुने टेलीकॉम उद्यमियों में शुमार किया जाता है। सुनील की कंपनी भारती एयरटेल दुनिया  के सबसे बड़े टेलीफोन कंपनियों में से एक है, जिसका व्यापर लगभग 19 देशों में फैला है। एयरटेल जीएसएम मोबाइल सेवा साथ -साथ इंटरनेट ब्रॉडबैंड  सेवाएं भी प्रदान करती है और करीब 20 करोड़ ग्राहक उसकी सेवाएं लेते हैं। सुनील ने ये सफलता अपनी कड़ी मेहनत, सच्ची लगन और दूरदृष्टि की बदौलत हासिल किया है।
प्रारंभिक जीवन
सुनील का जन्म पंजाब के लुधिआना जिले में 1957 को हुआ था। उनके पिता सतपाल मित्तल एक राजनेता थे और दो बार लोक सभा से और एक बार राज्य सभा से सांसद रह चुके थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मसूरी के विनबर्ग एलन स्कूल और बाद में ग्वालियर के सिंधिया स्कूल से हुई। वर्ष 1976 में उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। सुनील कहते हैं की बचपन में उन्हें पढाई-लिखे से कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी और वो अपना खुद का व्यवसाय स्थापित करना चाहते थे।
कैरियर
महज 18 साल की उम्र में उन्होंने अपना कारोबार शुरू कर दिया। उन्होंने अपने दोस्तों के साथ मिल कर एक छोटा-सा साइकिल व्यवसाय  मात्र 20 हजार रुपए से शुरू किया और सबसे पहले ब्रजमोहन मुंजाल की हीरो साइकिल कंपनी के लिए साइकिल के पार्ट्स बनाने शुरू किए। इसके बाद उनको ये लगा की ये व्यवसाय ज्यादा बड़ा नहीं हो सकता और अपने भाईयों के साथ मिलकर ‘भारती ओवरसीज ट्रेडिंग कंपनी” की स्थापना की। उन्होंने अपने साइकिल और दूसरे धंधों को बेच दिया और मुंबई चले गए। वर्ष 1981 में उन्होंने पंजाब के निर्यातकों से ‘इम्पोर्ट लाइसेंस” खरीदा और फिर जापान से आयातित पोर्टेबल जेनरेटरों के बिक्री का कार्य करने लगे। इस व्यवसाय से उन्हें वस्तुओं के मार्केटिंग और सेल्स का बहुत अनुभव मिला| धीरे-धीरे यह व्यवसाय भी जम गया और सब कुछ ठीक-ठाक चलने लगा परन्तु सरकार के एक नीति परिवर्तन ने उनके इस व्यापार को रातों-रात ठप्प कर दिया। यह लाइसेंस-राज का दौर था और सरकार ने जेनरेटर के आयात पर रोक लगा दी, क्योंकि दो भारतीय कंपनियों को देश में ही जेनरेटर बनाने का लाइसेंस दे दिया गया था।
इस घटना से सुनील ने यह सबक लिया कि आगे जब भी इस तरह का अवसर आएगा, वो उसे लपकने के लिए तैयार रहेंगे और वर्ष 1992 में ये मौका आया जब सरकार पहली बार मोबाइल फोन सेवा के लिए लाइसेंस बांट रही थी। सुनील ने उस अवसर को लपक लिया और उसके आगे सब इतिहास है।
1992 से पहले सुनील ने वर्ष 1986 में भारती टेलीकॉम लिमिटेड (बी टी एल) की स्थापना की थी और जर्मनी की AG सीमेंस कंपनी के साथ पुश बटन फ़ोन के निर्माण के लिए करार किया था। धीरे-धीरे उन्होंने अपने कारोबार का विस्तार किया और 1990 के दशक तक, सुनील की कंपनी फैक्स मशीन, ताररहित फोन और अन्य दूरसंचार उपकरण बना रही थी।
वर्ष 1992 में भारत सरकार ने पहली बार मोबाइल फोन सेवाओं के लिए लाइसेंस देना शुरू किया; सुनील मित्तल ने फ्रेंच दूरसंचार समूह विवेंडी के सहयोग से दिल्ली क्षेत्र के साथ-साथ कुछ अन्य क्षेत्रों का भी सेलुलर लाइसेंस प्राप्त किया। 1995 में सुनील मित्तल ने सेल्युलर सेवाओं की पेशकश के लिए भारती सेल्युलर लिमिटेड (बीसीएल) की स्थापना की और एयरटेल ब्रांड के तहत कार्य शुरू किया। जल्द ही, एयरटेल 2 लाख मोबाइल ग्राहकों का आंकड़ा पार करने वाली पहली दूरसंचार कंपनी बन गई। इसके बाद भारती सेल्यूलर लिमिटेड ने “इंडियावन” नाम से भारत की पहली निजी राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय लंबी दूरी/STD/ISD टेलीफोन सेवा प्रारम्भ की।
वर्ष 2008-2009 में भारती टेलीकॉम ने दक्षिणी अफ्रीका स्थित एक टेलीकॉम समूह “MTN” के अधिग्रहण की कोशिश की पर कई दौर के बातचीत के बावजूद दोनों कंपनियों के मध्य कोई समझौता नहीं हो सका। कुछ सूत्रों का ऐसा मानना है की दक्षिणी अफ़्रीकी सरकार शायद यह नहीं चाहती थी इसी वजह से ये समझौता नहीं हो पाया।
जून 2010 में, मित्तल के नेतृत्व में भारती टेलीकॉम ने दक्षिण अफ्रीकी टेलीकॉम कंपनी “जैन टेलीकॉम ” का अधिग्रहण किया। एक अभी तक का किसी भी भारतीय दूरसंचार कंपनी द्वारा सबसे बड़ा कभी अधिग्रहण था।
वर्ष 2012 में भारती ने अमेरिकी कंपनी वॉल-मार्ट के साथ भारत भर में खुदरा स्टोर खोलने का करार किया पर यह ज्यादा लम्बा नहीं चल सका और अक्टूबर 2013 में यह डील समाप्त हो गयी।
भारती ने वर्ष 2014 में “लूप मोबाइल” को भी लगभग ७०० करोड़ में खरीदने की घोषणा की पर बाद में सौदा रद्द कर दिया। मई 2015 में भारती रिटेल श्रंखला ‘ईज़ीडे’ और फ्यूचर बाजार के ‘बिग बाजार’ के विलय की घोषणा हुई।
पुरस्कार और सम्मान
  • 2007: भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया
  • एनडीटीवी बिजनेस लीडर पुरस्कार के तहत उन्हें “ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया लीडर” पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
  • उन्हें जीएसएमए अध्यक्ष के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
  • 2006 में फॉर्च्यून पत्रिका ने “एशिया बिजनेसमैन ऑफ़ द ईयर” से सम्मानित किया
  • वॉयस एवं डाटा ने 2006 में “टेलीकॉम मैन ऑफ़ द ईयर” चुना
  • फ्रॉस्ट और सुलिवन एशिया प्रशांत आईसीटी पुरस्कार, 2006, में ‘सीईओ ऑफ़ द ईयर”।
  • टेलीकॉम एशिया पुरस्कार, 2005, में सर्वश्रेष्ठ एशियाई टेलीकॉम सीईओ।
  • भारत संस्थागत निवेशक, 2005, में “सर्वश्रेष्ठ सीईओ”।
  • इकनोमिक टाइम्स, 2005 के “बिज़नेस लीडर ऑफ़ द ईयर”
  • एशियाई पुरस्कार, 2010 में “फिलैंथ्रॉपिस्ट ऑफ़ द ईयर”।

सोमवार, २३ जानेवारी, २०१७

आदि गोदरेज


जन्म: 3 अप्रैल 1942, मुंबई
कार्य क्षेत्र: उद्योगपति, गोदरेज उद्योग घराने के प्रमुख
आदि गोदरेज एक प्रसिद्ध भारतीय उद्योगपति और प्रसिद्द औद्योगिक घराने गोदरेज समूह के अध्यक्ष हैं। वे भारत के सबसे धनी उद्योगपतियों में से एक हैं। आदि कई सारे भारतीय उद्योग संगठनों के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। सन 2011 से वे इंडियन स्कूल ऑफ़ बिज़नस के बोर्ड के अध्यक्ष हैं और कॉन्फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडियन इंडस्ट्री के पूर्व अध्यक्ष भी रह चुके हैं। वे एम.आई.टी. स्लोअन प्रबंधन संस्थान के संकायाध्यक्ष के सलाहकार समिति के सदस्य हैं। वे नारसी मोंजी इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट स्टडीज के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स के भी अध्यक्ष हैं और व्हार्टन एशियन एग्जीक्यूटिव बोर्ड के मेम्बर हैं। इसके साथ-साथ आदि ‘हिमालयन क्लब’ के संरक्षक भी हैं। उन्होंने गोदरेज को एक परंपरागत ढंग से काम करने वाली कंपनी से एक ‘पेशेवर कंपनी’ बनाया।
प्रारंभिक जीवन
आदि गोदरेज का जन्म 3 अप्रैल 1942 को मुंबई शहर में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मुंबई में ही हुई। उन्होंने एच. एल. कॉलेज से स्नातक किया और ‘एम.आई.टी. स्लोअन स्कूल ऑफ़ मैनेजमेंट’ से एम.बी.ए. किया। अपने प्रबंधन के पढ़ाई के दौरान वे ‘पाई लैम्ब्डा फाई’ और ‘ताऊ बीटा पाई’ के सदस्य थे। सन 1963 में उन्होंने अपनी प्रबंधन की पढ़ाई पूरी की।
करियर
अमेरिका के प्रतिष्ठित संस्थान एम.आई.टी. से एम.बी.ए. करने के बाद वे भारत लौट आये और अपने पारिवारिक व्यवसाय में शामिल हो गए। जब वे गोदरेज समूह में शामिल हुए तो प्रबंधन को उनसे बहुत उम्मीदें थी क्योंकि प्रबंधन की शिक्षा ग्रहण करने के बाद कंपनी में शामिल होने वाले वे पहले व्यक्ति थे।
आदि के शामिल होने से पहले कंपनी पुराने ढर्रे पर कार्य करती थी जिसको बदलना उनके लिए एक कठिन चुनौती थी। उन्होंने कंपनी के प्रबंधन ढाँचे को आधुनिक और सुव्यवस्थित किया और बेहतर प्रक्रियाओं को लागू किया। उन्होंने गोदरेज को एक ‘पारिवारिक कंपनी’ से एक ‘पेशेवर कंपनी’ बनाया और मुख्य कार्यकारी अधिकारी जैसे पदों पर परिवार के बाहर से पेशेवर लोगों को भर्ती किया। भारत में लाइसेंस राज के दौर में भी वे ‘गोदरेज समूह’ को सफलता के नए शिखर पर ले गए। उन्होंने अपने भाई नादिर गोदरेज (जो गोदरेज इंडस्ट्रीज के प्रबंध निदेशक और गोदरेज अग्रोवेट के अध्यक्ष हैं) और चचेरे भाई जमशेद गोदरेज (जो गोदरेज एंड बोयस के प्रबंध निदेशक और अध्यक्ष हैं) गोदरेज समूह का बहुत विकास किया है।
आदि गोदरेज के नेतृत्व में गोदरेज समूह कई परोपकारी गतिविधियों में भागिदार है। वे ‘वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फण्ड इन इंडिया’ के जोरदार समर्थक हैं और इसके कार्यों में सहयोग प्रदान किया है। सन 2011 से वे ‘इंडियन स्कूल ऑफ़ बिज़नेस’ के अध्यक्ष हैं। सन 2012-13 में उन्हें ‘कॉन्फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया इंडस्ट्री (सी.आई.आई.) का अध्यक्ष भी चुना गया था।
सम्मान और पुरस्कार
आदि गोदरेज को अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।
  • राजीव गाँधी पुरस्कार 2002
  • द अमेरिकन इंडिया फाउंडेशन लीडरशिप इन फिलान्थ्रोप्य अवार्ड, 2010
  • एशिया पसिफ़िक इंटरप्रेन्योरशिप सम्मान 2010 में ‘इंटरप्रेन्योर ऑफ़ द इयर’ पुरस्कार से सम्मानित
  • जी.क्यू मेन ऑफ़ द इयर अवार्ड्स 2010 में ‘बेस्ट बिजनेसमैन ऑफ़ द इयर’ पुरस्कार से सम्मानित
  • चेमेक्सिल के ‘लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार’ 2010 से सम्मानित
  • एआईएमए- जेआरडी टाटा कॉर्पोरेट लीडरशिप सम्मान 2010
  • बॉम्बे मैनेजमेंट एसोसिएशन – मैनेजमेंट ऑफ़ द इयर पुरस्कार 2010-2011
  • किम्प्रो प्लैटिनम स्टैण्डर्ड अवार्ड फॉर बिज़नस 2011
  • अर्न्स्ट एंड यंग इंटरप्रेन्योर ऑफ़ द इयर 2012
  • भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित, 2012
  • डा एशियन अवार्ड्स- इंटरप्रेन्योर ऑफ़ द इयर 2013
  • आल इंडियन मैनेजमेंट एसोसिएशन – बिज़नस लीडर ऑफ़ द इयर 2015
निजी जीवन
उन्होंने मशहूर सोशलाइट और लोकोपकारी परमेश्वर गोदरेज से विवाह किया। गोदरेज दंपत्ति के तीन बच्चे हैं। आदि गोदरेज मुंबई के जुहू क्षेत्र में रहते हैं। उनकी सबसे बड़ी बेटी तान्या गोदरेज इंडस्ट्रीज में कार्यकारी निदेशक और विपणन विभाग की अध्यक्ष हैं। उनकी दूसरी बेटी निशा गोदरेज ने अमेरिका के हार्वर्ड बिज़नस स्कूल से प्रबंधन की शिक्षा ली है और गोदरेज समूह में कार्यरत हैं। उनके बेटे पिरोजशा गोदरेज ने भी अमेरिका से प्रबंधन की शिक्षा ली है और ‘गोदरेज प्रॉपर्टीज’ से जुड़े हैं।

शनिवार, २१ जानेवारी, २०१७

धीरुभाई अंबानी

धीरुभाई अंबानी कि जीवनी


Dhirubhai Ambani – धीरजलाल हीरालाल अंबानी जो ज्यादातर धीरुभाई अंबानी के नाम से जाने जाते है, एक सफल भारतीय व्यवसाय के शक्तिशाली कारोबारी थे. जिन्होंने 1966 में रिलायंस इंडस्ट्रीज की स्थापना की, उन्होंने जिस मेहनत और लगन से तरक्की की है उसी वजह से भारत का हर युवा उनसें प्रेरणा लेता है, धीरुभाई अंबानी ने हमें ये सोचने के लिये प्रेरित किया की जिसमें काबिलियत होती है, फिर चाहे वो किसी भी परिस्तिथि में क्यों ना हो सफलता पा सकता है.

पूरा नाम  – धीरजलाल हीरालाल अंबानी
जन्म      – 28 डिसंबर 1932.
जन्मस्थान –  जूनागढ़  गुजरात.
पिता      – हीरालाल अंबानी
माता      – जमनाबेन अंबानी
विवाह     – कोकिलाबेन
धीरुभाई अंबानी ने जो कंपनी कुछ थोडेसे पैसे के लगत पर खड़ी की थी उस रिलायंस इंडस्ट्रीज में 2012 तक 85000 कर्मचारी हो गये थे और सेंट्रल गवर्नमेंट के पुरे टैक्स में से 5% रिलायंस देती थी. और 2012 में संपत्ति के हिसाब से विश्व की 500 सबसे अमीर और विशाल कंपनियों में रिलायंस को भी शामिल किया गया था. धीरुभाई अंबानी को सन्डे टाइम्स में एशिया के टॉप 50 व्यापारियों की सूचि में भी शामिल किया गया था. अंबानी ने 1977 में रिलायंस कंपनी को लाया और 2007 तक उनकी संपत्ति 60 बिलियन $ थी, जिसने अंबानी को विश्व का तीसरा सबसे अमीर परिवार बनाया.