गुरुवार, ६ एप्रिल, २०१७



Joseph L. Goldstein is an American molecular geneticist who won a share of the Nobel Prize in Physiology or Medicine in 1985. Working along with his long term collaborator and friend, Michael Brown, he discovered that human cells have low-density lipoprotein (LDL) receptors that remove cholesterol from the blood. This discovery led to further research and experimentation which ultimately culminated in the development of statin drugs for controlling cholesterol in humans. Goldstein developed an interest in science while quite young and attended the Washington and Lee University from where he received his BS degree in chemistry, summa cum laude. He proceeded to study medicine and joined Texas University's Southwestern Medical School. After earning his MD he worked in biochemical genetics at the National Institutes of Health (NIH) for a few years before moving back to the Southwestern Medical Center in 1972. The same year marked the beginning of a very productive collaboration between Goldstein and his colleague Michael Brown that would last more than four decades. The two men performed vital research on cholesterol in the human body and shed new light on the cells receptors’ role in the regulation of cholesterol levels in the bloodstream. Goldstein and Brown were honored with several prestigious awards, including the Nobel Prize, for their invaluable contributions to medical science.

मंगळवार, ४ एप्रिल, २०१७

Henri Becquerel


Henri Becquerel was born in Paris, France, on December 15, 1852. Born into a family of scientists, Becquerel followed his father into the academic field of physics. In 1896, he discovered radioactivity, which was to be the focus of his work thereafter. Becquerel won the Nobel Prize for Physics in 1903, sharing the prize with Marie and Pierre Curie. He died in Brittany, France, on August 25, 1908.
Early Life and Career
Antoine Henri Becquerel was born in Paris, France, on December 15, 1852. He was born into a family of scholars and scientists. His father, Alexander Edmond Becquerel, was an expert on solar radiation and phosphorescence. His grandfather, Antoine César, had invented an electrolytic method for extracting metals from their ores. Becquerel followed in the footsteps of his forebears, chemistry and physics through his university years at the École Polytechnic.
Becquerel joined the government department of Ponts-et-Chaussées in 1874, quickly rising through the ranks. He maintained an appointment at the Museum of Natural History. Becquerel ultimately decided to pursue this academic path. He returned to school, earning a doctorate in 1888. In 1892, he was appointed Professor of Applied Physics in the Department of Natural History at the Paris Museum. Three years later, he began teaching at his alma mater, the École Polytechnic.
Scientific Work
Becquerel's early work focused on the polarization of light phosphorescence and terrestrial magnetism. In 1896, he made his greatest discovery: radioactivity. Following a discussion with Henri Poincaré on the recent discovery of X-rays, Becquerel devised an experiment that proved the existence of this naturally occurring force. Although his initial experiments were not successful he came upon evidence of natural radioactivity nearly by accident, when an unexpected reaction occurred in one of his laboratory drawers. Becquerel was awarded the Nobel Prize for Physics in 1903, sharing the honor with Pierre and Marie Curie.
Later Life and Honors
Becquerel was an esteemed member of the European scientific community. He was elected a member of the Academie des Sciences de France in 1889, serving as Life Secretary of the organization. He also belonged to the Accademia dei Lincei and the Royal Academy of Berlin, amongst other scholarly societies. He was named an officer of the French Legion of Honor in 1900.
Antoine Henri Becquerel died in Le Croisic, Brittany, France, on August 25, 1908. His work with radioactive materials, leaving him burned and scarred, may have contributed to his death.
Personal Life

Becquerel married twice. He married Lucie Zoé Marie Jamin in 1874. She died shortly after giving birth to their son, Jean, in 1878. Jean would go on to become a physicist, carrying on the family tradition. In 1890, Becquerel married Louise Désirée Lorieux.

सोमवार, २७ मार्च, २०१७

एक हजार ९३ अनुसन्धान कार्य करके उनके पेटंट प्राप्त करनेवाले महान शास्त्रज्ञ के रूप में थॉमस आल्वा एडिसन का नाम मानवी इतिहास में दर्ज़ किया गया है उन्हीं के समकालीन माने जानेवाले एक भारतीय संशोधनकर्ता को पश्चिमी  दुनिया के शास्त्रज्ञ ‘भारत के एडिसन’ कहते थे। इसी वक्तव्य के आधार पर हम इस भारतीय शास्त्रज्ञ के महानता का अंदाज़ा लगा सकते हैं। ये महान शास्त्रज्ञ हैं, शंकर आबाजी भिसेजी। आधुनिक विज्ञान की परंपरा का कोई भी आधार न होते हुए भी भिसे जी के द्वारा विज्ञान क्षेत्र में दिए गए योगदान की कोई बराबरी नहीं कर सकता है। यही बात उन्हें ‘भारत के एडिसन’ की उपाधि दिलवाने में सहायक सिद्ध हुई। यह उपाधि देनेवाले लोग शास्त्रीय संशोधन में अपने जीवन को अर्पित कर देनेवाले विशेष लोग थे।
शास्त्रीय संशोधन की चाह एवं प्रयोगशीलता के जोर पर जग-मान्यता प्राप्त करनेवाले भारतीय संशोधनकर्ता के रूप में शंकर आबाजी भिसे जी प्रसिद्ध हैं। मुंबई में १८६७ में जन्म लेनेवाले शंकर भिसे जी की स्कूली शिक्षा कल्याण, जलगाँव, धुले, पुने इस प्रकार के विभिन्न स्थानों पर हुई। उन्हें बचपन से ही शास्त्रीय विषयों की चाह थी। उम्र के इक्कीसवे वर्ष ही वे ‘ऑडिटर जनरल’ कार्यालय में नौकरी हेतु कार्यरत हो गए। नौकरी करते हुए ही वे शास्त्रीय ज्ञान पर आधारित मनोरंजक कार्यक्रम भी करते थे। शंकर भिसे जी ने शास्त्रीय ज्ञान का प्रचार करने के लिए १८९३ में ‘द सायंटिफिक क्लब’ नामक संस्था की स्थापना की, इसके पश्‍चात् दूसरे वर्ष ही ‘विविध कलासंग्रह’ नामक मासिक शुरु कर दिया। १८९० से पाँच-छ: वर्षों तक वे ‘आग्रा लेदर्स वर्क्स’ के संचालक पद पर आसीन रहे।
दादाभाई नौरोजी ने भिसे जी की इंग्लैड जाने के लिए मदद की। ब्रिटन में उन्होंने विज्ञापन दिखानेवाले यंत्र, स्वयंचलित वजन वितरण, दर्ज़ करनेवाले यंत्रों आदि से संबंधित संशोधन किये।
१८९७ में लंडन में होनेवाली सोसायटी ऑफ सायन्स, लेटर्स अ‍ॅण्ड आटर्स् नामक इस संस्था ने स्वयंमापक यंत्र निर्माण प्रतियोगिता  में भाग लेकर उसमें पुरस्कार भी प्राप्त किया। उनमें होनेवाली इस बुद्धिमत्ता पर गौर करते हुए भिसे जी को उस संस्था का सम्माननीय सदस्यत्व प्रदान  किया गया। इसके दो तीन वर्षों के पश्‍चात् शंकर भिसे जी ने मुद्रण व्यवसाय के यंत्रसामग्री के प्रति अपना ध्यान केन्द्रित किया। उस काल में प्रचलित होनेवाले लायनो, मोनो इस प्रकार के यंत्रों की रचना पर ध्यान केन्द्रित कर उन्होंने प्रति मिनट लगभग १२०० विविध प्रकार के छपाई के चिह्न अंकित करनेवाले ‘गुणित मातृका’ नामक यंत्र की खोज़ की। संशोधन के पश्‍चात् १९१६ में उन्होंने उसे बाजारों में उपलब्ध कर दिया।
इसके पश्‍चात् १९१६ में शंकर भिसे जी अमेरिका गए। अमेरिका के यूनिव्हर्सल टाईप मशीन कंपनी की दरख्वास्त के के अनुसार ‘आयडियल टाईप कास्टर’ नामक यंत्र की खोज़ की अमेरिका में उनका पेटंट ले लिया गया। उत्पादन हेतु भिसे ने आयडियल टाईप कास्टर कार्पोरेशन कंपनी की स्थापना करके १९२१ में प्रथम यंत्र बिक्री के लिए उपलब्ध किया।
इस दौरान भिसे जी स्वयं बीमार पड़ गए। उस बीमारी की ही अवस्था में उन्होंने जो औषधी ली थी उनमें से एक भारतीय औषधि गुणकारी साबित हुई कौतुहल पूर्वक उन्होंने उस औषधि का रासायनिक पृथक्करण करवा लिया। औषधि का गुणकारी रूप आयोडिन के कारण ही है यह जानने पर भिसे ने स्वयं नयी औषधि विकसित करने का निश्‍चय किया। ‘ऑटोमिडीन’ नामक यह औषधि प्रथम विश्‍वयुग के समय अमेरिकन सैनिकों के लिए काफ़ी बड़े प्रमाण में उपयुक्त साबित हुई थी।
आयुर्वेद में मूलत: मानी जानेवाली अनगिनत औषधियाँ एवं उपचार इनकी जानकारी भारत में हजारों वर्षों से परंपरागत पिढ़ी दर पिढ़ी चलती चली आ रही थी। परन्तु बदकिस्मती से दुनिया  ने उसे दर्ज़ भी नहीं किया गया था और ना ही उसकी शास्त्रीय चिकित्सा हुई थी। संशोधन न होने के कारण इसके परंपरागत ज्ञान का विकास नहीं हुआ और इसी कारण पश्चिमी  देशों ने इसे अनदेखा कर दिया। भारत को स्वातंत्र्य मिलने पर हलदी के समान पारंपारिक औषधि के हक के लिए दशकों संघर्ष करना पड़ा। उस पार्श्‍वभूमि पर भिसे जी ने बीसवी सदी के आरंभिक काल में अमेरिका में ही प्राचीन भारतीय ज्ञान का उपयोग करके विकसित की गयी औषधि की खोज यह काफ़ी सराहनीय है। इस प्रकार की संशोधक, चिकित्सकवृत्ति भारतीयों ने अपने में आत्मसात कर रखी होती तो आज हलदी से लेकर अन्य अनेक भारतीय उपचार पद्धति के पेटंट के लिए वैश्‍विक धरातल पर संघर्ष नहीं करना पड़ता। उलटे इस पर भारत का अपना अधिकार साबित होता।
विद्युतशास्त्र में भी भिसे जी ने अनेक वस्तुओं को लेकर संशोधन किए। वातावरण में होनेवाले विविध प्रकार की वायुओं का पृथक्करण करनेवाले यंत्र, अनेक विज्ञापनों का एकत्रित दर्शन करनेवाला लैम्प (दीपक) सागर की गहराई से प्रकाशझोत छोड़नेवाला दीपक इस प्रकार की विभिन्न वस्तुओं को उन्होंने विकसित किया। अपने जीवन के अंतिम काल में वे अध्यात्म की दिशा में मुड़ गए। शांति, एकता का अहसास जैसे अध्यात्मिक तत्त्वों से प्रेरित होकर उन्होंने अमेरिका के लोटस फिलॉसॉफी सेंटर की स्थापना भी की थी।
अमेरिका में हर साल विविध क्षेत्रों में उत्कृष्ट कार्यकारी करनेवाले मान्यवर व्यक्तियों का समावेश ‘हूज हू’ नामक इस विशेष प्रकाशन में किया जाता है। बीसवी सदी के आरंभ में ही ऐसे प्रतिष्ठित ‘हूज हू’ में समाविष्ट होनेवाले प्रथम भारतीय व्यक्ति का गौरव शंकर भिसे जी ने प्राप्त किया। मुद्रण यंत्र के (प्रीटींग) विशेष कारीगिरी के प्रति ही उन्हें यह सम्मान दिया गया था। विदेश में रहते हुए भी यांत्रिक ज्ञान, यंत्रविद्या, विज्ञान इस प्रकार के अनेक विषयों पर उन्होंने नियतकालिकों के माध्यम से लेखन किया। अमेरिका में निवास करनेवाले शंकर भिसे जी का न्यूयार्क शहर में ५ अप्रैल, १९३५ के दिन देहान्त हो गया।

सोमवार, २० मार्च, २०१७

Sam Pitroda


बहुत समय नहीं हुआ जब भारत में टेलीफ़ोन को एक पेपरवेट की तरह इस्तेमाल किया जाता था.
टेलीफ़ोन का उपकरण इतना भारी हुआ करता था कि बहुत से लोग उसे इस डर से नहीं उठाते थे कि उन्हें कहीं हर्निया न हो जाए.
रेहान फ़जल की विवेचना यहां सुनें.
एक मज़ाक ये भी प्रचलित था कि कभी-कभी अभिभावक अपने शरारती बच्चों को नियंत्रण में लाने के लिए इसके भारी रिसीवर का इस्तेमाल किया करते थे.
कहने का मतलब ये कि टेलीफ़ोन को आपस में संपर्क स्थापित करने के लिए संयोगवश ही इस्तेमाल किया जाता था. ‘डेड टेलीफ़ोन’ भारतीय संस्कृति का एक प्रचलित मुहावरा बन गया था.
यहाँ तक कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का निवास भी इससे अछूता नहीं रहा था. भारत के हर 100 में से सिर्फ 0.4 फ़ीसदी लोगों के पास फ़ोन थे. इनमें से 55 फ़ीसदी फ़ोन शहरी आबादी के सात फ़ीसदी लोगों के पास थे.
इस सब को बदलने का श्रेय अगर किसी एक शख्स को दिया जा सकता है तो वो हैं सैम पित्रोदा.
सैम के सफ़र की शुरुआत ओडिशा के बोलांगीर ज़िले के एक छोटे से गाँव तीतलागढ़ में हुई थी. सैम के दादा बढ़ई और लोहार का काम किया करते थे.
उस ज़माने में सैम का सबसे प्रिय शगल होता था अपने घर के सामने से गुज़रने वाली रेलवे लाइन पर दस पैसे का सिक्का रखना और ट्रेन के गुज़रने के बाद कुचले हुए सिक्के को ढूंढ कर जमा करना.
सैम के पिता चाहते थे कि वो गुजराती और अंग्रेज़ी सीखें. इसलिए उन्होंने उन्हें और उनके बड़े भाई मानेक को पढ़ने के लिए पहले गुजरात में विद्यानगर के शारदा मंदिर बोर्डिंग स्कूल और फिर बड़ोदा विश्वविद्यालय भेजा.
वहाँ से उन्होंने भौतिकी शास्त्र में पहली श्रेणी में एमएससी की परीक्षा पास की. वहीं उनकी मुलाकात उनकी भावी पत्नी अनु छाया से हुई. जब उन्होंने अनु को पहली बार देखा तो वो धूप में अपने बाल सुखा रही थीं.


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सैम याद करते हैं, "मैंने उसे देखते ही पहली निगाह में अपना दिल दे दिया. उस समय मैं सिर्फ़ बीस साल का था. आज की तरह उस समय भी मेरे पास डायरी हुआ करती थी. उसमें मैंने लिखा कि मैं इस लड़की से शादी करूँगा."
लेकिन अनु तक अपनी भावना पहुंचाने में सैम को डेढ़ साल लग गए. अमरीका जाने से पहले वो उनका हाथ मांगने उनके पिता से मिलने गोधरा गए. अभी उन्होंने दरवाज़े पर दस्तक दी ही थी कि उनका कुत्ता दौड़ता हुआ आया और उसने सैम के हाथ में काट खाया.
सैम उससे इतने परेशान हुए कि उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला और अनु का हाथ मांगने की बात उनके दिल में ही रह गई.


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जब सैम शिकागो पहुंचे तो उन्हें अमरीकी संस्कृति से सामंजस्य बैठाने में ख़ासी मशक्कत करनी पड़ी. सैम याद करते हैं, "वहाँ सब कुछ नया था. हर चीज़ अजीब सी लगती थी... लोग अजीब थे... खाना अजीब था... बातें अजीब थीं.. भाषा अजीब थी. पहली बार मैंने वहाँ डोर नॉब देखा. हमारे यहाँ तो सांकल होती थी. रिवॉल्विंग दरवाज़ा पहली बार मैंने वहाँ देखा. हमारी समझ में आ गया कि जिंदगी अब आगे देखने के लिए है, पीछे देखने के लिए नहीं."
वो बताते हैं, "मेरे लिए सबसे बड़ा साँस्कृतिक झटका ये था कि एक साथ कई लोग बाथरूम में सामूहिक तौर पर नहाया करते थे और वो भी बिल्कुल नंगे होकर और उस पर तुर्रा ये कि नहाते समय वो आपस में बातें भी किया करते थे. मुझे ऐसा करते हुए बहुत शर्म आई. इसलिए मैंने उससे बचने के लिए रात के बारह बजे नहाना शुरू कर दिया ताकि हॉस्टल के बाथरूम में कोई शख़्स मौजूद न हो."
पढ़ाई ख़त्म करने के बाद सैम ने टेलीविज़न ट्यूनर बनाने वाली कंपनी ओक इलेक्ट्रिक में काम करना शुरू कर दिया. तब तक सैम का नाम सत्यनारायण पित्रोदा हुआ करता था.
जब उनको अपनी तनख़्वाह का चेक मिला तो उसमें उनका नाम सैम लिखा हुआ था. जब वो वेतन का काम देखने वाली महिला के पास इसकी शिकायत ले कर गए तो उसने कहा कि तुम्हारा नाम बहुत लंबा है, इसलिए मैंने इसे बदल दिया.


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सैम ने सोचा कि कोई कैसे उनकी मर्ज़ी के बगैर उनका नाम बदल सकता है लेकिन फिर उनको ख़्याल आया कि अगर वो चेक में नाम बदलने पर ज़ोर देंगे तो उन्हें इसे भुनाने में दो हफ़्ते और लग जाएंगे. ये नाम उनसे चिपक गया और वो सत्यनारायण से सैम हो गए.
1974 में वो दुनिया की सबसे पहली डिज़िटल कंपनियों में से एक विस्कॉम स्विचिंग में काम करने लगे. 1980 में रॉकवेल इंटरनेशनल ने इसे ख़रीद लिया. सैम इस कंपनी के वाइस प्रेसिडेंट बन गए और इसमें उनकी हिस्सेदारी भी हो गई.
उन्होंने इसे बेचने का फ़ैसला किया और मुआवज़े में उन्हें चालीस लाख डॉलर मिले. 1980 में वो दिल्ली आए. इससे पहले वो पंद्रह साल की उम्र में एक कॉलेज टूर पर सिर्फ़ दो दिन के लिए दिल्ली आए थे.
वो उस समय दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ ताज होटल में रुके हुए थे. वहाँ पहुंचते ही उन्होंने अपनी पत्नी अनु को टेलीफ़ोन करने की कोशिश की, लेकिन टेलीफ़ोन लगा ही नहीं. अगले दिन सुबह जब उन्होंने अपने होटल की खिड़की से झाँका तो देखा कि नीचे सड़क पर डेड फ़ोन की एक सांकेतिक शव यात्रा निकल  रही थी
शव की जगह टूटे हुए, काम न करने वाले फ़ोन रखे हुए थे और लोग ज़ोर-ज़ोर से नारे लगा रहे थे. सैम ने उसी समय तय किया कि वो भारत की टेलीफ़ोन व्यवस्था को ठीक करेंगे.
26 अप्रैल, 1984 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सी-डॉट की शुरुआत की मंज़ूरी दी. सैम को एक रुपए वार्षिक वेतन पर सी-डॉट का प्रमुख बनाया गया.
सैम बताते हैं, "रूज़वेल्ट के समय में अमरीका में लोगों ने देश को अपनी मुफ़्त सेवाएं दी थीं. हमारे जो दोस्त यहाँ थे रजनी कोठारी, आशीष नंदी, धीरू भाई सेठ उन सबने कहा कि अगर तुम्हें देश की सेवा करनी हो तो दिल लगा कर काम करो."
वो कहते हैं, "मैंने सोचा कि ये समय भारत को देने का है, उससे लेने का नहीं. भारत ने मुझे बहुत कुछ दिया था. मैंने दस डालर में यहाँ से मास्टर्स किया फ़िज़िक्स में. उस ज़माने में तनख़्वाह तो बहुत थी नहीं. दस हज़ार रुपए महीने तनख़्वाह ले .
इससे पहले सैम ने इंदिरा गाँधी और उनके मंत्रिमंडल के सामने एक घंटे का प्रेजेंटेशन दिया.
सैम कहते हैं, "हमने बंगलौर में हार्डवेयर डिज़ाइन करना शुरू किया. सॉफ़्टवेयर के लिए हमें दिल्ली में जगह नहीं मिल रही थी. राजीव गांधी ने सलाह दी कि आप एशियाड विलेज जाइए. जगह तो अच्छी थी लेकिन वहाँ एयरकंडीशनिंग नहीं थी. दिल्ली की गर्मी में एयरकंडीशनिंग न हो तो सॉफ़्टवेयर का काम नहीं हो सकता था. अकबर होटल में जगह ख़ाली थी. हमने वहाँ दो फ़्लोर ले लिए."
वो बताते हैं, "शुरू में फ़र्नीचर नहीं था. हमने छह महीने तक खटिया पर बैठ कर काम किया. हमने 400 युवा इंजीनयरों को भर्ती किया. उन्हें ट्रेन किया. पता चला कि इनमें कोई लड़की नहीं है. फिर लड़कियों को लाया गया उसमें."


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कुछ ही महीनों में भारत के हर गली कूचे में पीले रंग के एसटीडी या पीसीओ बूथ दिखाई देने लगे. इस पूरे अभियान में बीस लाख लोगों को रोज़गार मिला, ख़ास तौर पर पिछड़े और शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को.
फ़ोन भारतीय लोगों की सामाजिक गतिविधियों का केंद्र बन गए. बूथ चलाने वाले लोगों ने वहाँ पर सिगरेट, टॉफ़ियाँ और यहाँ तक कि दूध भी बेचना शुरू कर दिया. टेलीफ़ोन अब विलासिता की चीज़ न रह कर रोज़मर्रा की ज़रूरत की चीज़ बन गया.
सैम बताते हैं, "हमने पहले ग्रामीण एक्सचेंज बनाया. फिर बड़ा डिजिटल एक्सचेंज बनाया. फिर तो दूर संचार क्रांति शुरू हो गई क्योंकि लोग कुशल हो गए. वो बीज था जो हमने बोया. हर शख्स जिसने कभी सी-डॉट में काम किया, वो आज या तो कोई बड़ा मैनेजर है, प्रोफ़ेसर है या उद्यमी है. हमने एक दक्षता पैदा की और फिर मल्टीप्लायर प्रभाव शुरू हो गया."


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इस बीच सैम को 'टेलीकॉम आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया. उस दौरान मशहूर कंपनी जनरल इलेक्ट्रिक के अध्यक्ष जैक वेल्च भारत आए. वो राजीव गांधी से मिलने वाले थे लेकिन वो किसी ज़रूरी काम में व्यस्त थे.
उन्होंने सैम को उनसे मिलने भेजा. सैम ने उन्हें नाश्ते पर आमंत्रित किया. वेल्च ने पहला सवाल किया, "हमारे लिए आपके पास क्या प्रस्ताव है?"
सैम ने कहा, "हम आपको सॉफ़्टवेयर बेचना चाहते हैं." वेल्च बोले, "लेकिन हम तो यहाँ सॉफ़्टवेयर ख़रीदने नहीं आए हैं. हमारी मंशा तो आपको इंजन बेचने की है."
सैम ने कहा कि हमारा आपसे इंजन ख़रीदने का कोई इरादा नहीं है. वेल्च ने कहा कि हम इतनी दूर से जिस काम के लिए आए हैं, आप उस पर बात तक करने के लिए तैयार नहीं हैं. अब क्या किया जाए?
सैम ने कहा आइए नाश्ता करते हैं. लंबी चुप्पी के बाद वेल्च ने कहा, "बताइए आप सॉफ़्टवेयर के बारे में कुछ कह रहे थे." सैम ने 35 एमएम की स्लाइड पर अपना प्रेजेंटेशन शुरू किया.
वेल्च ने उसके एक-एक शब्द को ग़ौर से सुना और कहा, "आप हमसे क्या चाहते हैं?"
सैम का जवाब था, "एक करोड़ डॉलर का सॉफ़्टवेयर का ऑर्डर." वेल्च ने कहा, "मैं अपनी कंपनी के चोटी के ग्यारह लोगों को आपके पास भेजूँगा. आप उन्हें कनविंस करिए कि आपके प्रस्ताव में दम है."
एक महीने बाद जीई के चोटी के अधिकारी दिल्ली पहुंचे. सैम ने उस समय नई-नई बनी कंपनी इंफ़ोसिस के साथ उनकी बैठक तय की. इंफ़ोसिस ने कहा कि उनका तो कोई दफ़्तर भी नहीं है.
सैम ने कहा आप जीई वालों को ये बात मत बताइए और उनसे किसी पांच सितारा होटल में मिलिए. वो बैठक हुई और जीई ने एक करोड़ डॉलर का सॉफ़्टवेयर का पहला ऑर्डर दिया और यहीं से भारत के सॉफ़्टवेयर कंसल्टिंग उद्योग की नींव रखी गई.
लेकिन इस बीच राजीव गाँधी चुनाव हार गए. 21, मई, 1991 को अचानक राजीव गाँधी की हत्या हो गई. इसके बाद सैम का भारत में मन नहीं लगा.
सैम याद करते हैं, "हमने सिर्फ़ एक प्रधानमंत्री ही नहीं खोया, मैंने अपना सबसे प्यारा दोस्त खो दिया. ये एक इच्छा और एक सपने का अंत था. मैंने अपनी नागरिकता तक बदल दी थी. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए. मेरे सामने अंधेरा ही अंधेरा था और तभी मैंने पाया कि तब तक मेरे सारे पैसे ख़त्म हो गए थे. मैंने पिछले दस साल से कोई वेतन नहीं लिया था. मैंने सोचा कि अब समय आ गया है वापस अमरीका जाने का."
ये बात सुनने में थोड़ी अजीब सा लग सकती है कि सैम पित्रोदा ने काम करने की धुन में 1965 के बाद से कोई फिल्म नहीं देखी थी.


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उनके नज़दीकी दोस्त और पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी बताते हैं, "सैम पित्रोदा न तो शॉपिंग करने जाते हैं, न ही किसी जन्म दिन पार्टी में जाते हैं और न ही कभी फ़िल्म देखने जाते हैं. एक बार वो मेरे घर पर रुके हुए थे. उनकी पत्नी अनु भी उनके साथ थीं. मैंने उनसे कहा, चलिए फ़िल्म देखी जाए. सैम ने कहा फ़िल्म और मेरा दूर-दूर का वास्ता नहीं है. लेकिन मैं उन्हें ज़बरदस्ती थ्री ईडियट्स फ़िल्म दिखाने ले गया."
"जब हम फ़िल्म देख कर बाहर निकले तो अनु ने कहा आप का बहुत-बहुत धन्यवाद. मैंने कहा धन्यवाद देने की क्या ज़रूरत है. अनु ने कहा कि चालीस साल की वैवाहिक ज़िंदगी में हमने पहली बार साथ में कोई फ़िल्म देखी है."


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आज 73 साल की उम्र में सैम पित्रोदा जैसा बहुआयामी व्यक्तित्व मिलना मुश्किल है. वो बचपन से तबला बजाते हैं, चित्रकारी करते हैं और बेहतरीन संगीत सुनते हैं. ग़जलें सुनना उन्हें बेहद पसंद है.
इकोनॉमिस्ट और वॉल स्ट्रीट जर्नल पढ़ना उन्हें पसंद है. हाल मे वियना में उनके चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी. संगीत सुनने का उन्हें बहुत शौक है ख़ासतौर से ड्राइव करते हुए.
बचपन में उन्होंने जो फ़िल्में देखीं थीं पचास के दशक में 'बरसात', 'नागिन', 'काग़ज़ के फूल'... 'प्यासा' और जब भी इन फ़िल्मों के गीत वो सुनते हैं, अपने आप को गुनगुनाने से नहीं रोक पाते.

शनिवार, १८ मार्च, २०१७

Henry Ford के अनमोल विचार


1. विश्व की सबसे आश्चर्यजनक बात यह जानना हैं कि आप वो काम कर सकते हैं, जो आप सोचते थे कि आप नहीं कर पायेंगे।
2. सबसे मुश्किल कार्य है सोचना, शायद यही कारण है कि इसमें इतने कम लोग लगे होते हैंl
3. अगर आप लक्ष्य से ध्यान हटाते हैं, तो आपको वो डरावनी समस्याएँ नजर आएँगी।
4. मुझे विश्वास है कि ईश्वर सब चीजें मैनेज कर रहे हैं और उन्हें मुझसे किसी सलाह की जरुरत नहीं है। ईश्वर के होते हुए, मुझे यकीन है कि अंत में सब अच्छा होगा। तो फिर चिंता करने की क्या बात है।
5. जो कोई भी सीखना छोड़ देता है वो बूढ़ा है, चाहे वो तीस का हो या साठ का। जो कोई भी सीखता रहता है वो जवान है। विश्व की सबसे महान चीज है अपने दीमाग को युवा बनाये रखना।
6. एक-साथ आना एक शुरूआत है; एक साथ रहना उन्नति है; एक साथ काम करना सफलता है।
7. वो एम्प्लायर नहीं होता जो वेतन देता है। एम्प्लोयर्स बस पैसों को संभालते हैं। वो कस्टमर होता है जो वेतन देता है।
8. किसी मनुष्य की महानतम खोजों में से एक, उसके सबसे बड़े आश्चर्यों में से एक, ये जानना है कि वह उस काम को कर सकता है जिसे वो सोचता था कि वो नहीं कर सकता है।
9. जिन्दगी में अनुभवों की एक श्रृंखला है, उनमे से हर एक हमें बड़ा बनाता है, हालांकि कभी-कभी ये महसूस करना कठिन होता है।
10. अगर हर कोई साथ में आगे बढ़ रहा है तो सफलता खुद अपना ख्याल रख लेती है।
हेनरी फोर्ड
11. जब सब कुछ आपके खिलाफ जा रहा हो तो याद रखिये हवाई जहाज हवा के विरुद्ध उड़ान भरता है उसके साथ नहीं।
12. आप इस पर अपनी प्रतिष्ठा नहीं बना सकते कि आप क्या करने जा रहे हैं।
13. मेरा सबसे अच्छा मित्र वो है जो मेरी हमेशा गलतियाँ ढूंढ़ता है ताकि सर्वश्रेष्ठ बाहर आ सके।
14. मुझे विश्वास हैं कि ईश्वर सब कुछ मैनेज कर रहे हैं, तो फिर चिंता करने की क्या बात हैं|
15. हम जैसे-जैसे जीवन में आगे बढ़ते हैं अपनी क्षमताओं की सीमाओं को जानने लगते हैं।
16. विफलता बस फिर से शुरू करने का अवसर है, इस बार और अधिक समझदारी से।
17. बाधाएं वो डरावनी चीजें है जो आप तब देखते हैं जब आप लक्ष्य से अपनी ध्यान हटा लेते हैं।
18. कुछ भी इतना कठिन नहीं है अगर आप उसे छोटे-छोटे कार्यों में विभाजित कर लें।
19. यदि धन आपकी आजादी की उम्मीद हैं तो वो आपको कभी नहीं मिलेगी। एकमात्र वास्तविक सुरक्षा जो किसी मनुष्य के पास इस दुनिया में होगी वो है ज्ञान, अनुभव, और क्षमता का खजाना।
20. अगर आप समझते हैं कि पैसा ही सब कुछ हैं तो आप गलत हैं। क्योंकि जीवन में अगर कोई वास्तविक सुरक्षा हैं तो वह मनुष्य का ज्ञान, अनुभव और क्षमता का खजाना हैं।
21. एक मार्केट कभी अच्छे उत्पाद से सैचुरेट नहीं होता, लेकिन एक बुरे उत्पाद से ये बहुत जल्दी सैचुरेट हो जाता है।
22. यहां तक कि एक गलती भी एक सार्थक उपलब्धि के लिए आवश्यक हो सकती है।
23. अपराध ख़त्म करने के लिए फांसी की सजा मूल रूप से उतनी ही गलत है जितना कि गरीबी मिटाने के लिए दान देना।
24. ज्यादातर लोग समस्या हल करने का प्रयास करने की बजाये अपना वक्त और उर्जा उसके इर्द-गिर्द बिता देते हैं।
25. अगर सफलता का कोई एक रहस्य है, तो वो इस योग्यता में निहित है कि दुसरे व्यक्ति की बात को समझना और चीजों को उसके और अपने नज़रिए से देख पाना।
26. अगर आप असफल होते हैं, तो यह आपके लिए एक मौका हैं – दूसरी बार अधिक समझदारी के साथ प्रयास करने का।
27. अगर आप साथ आते हैं, तो वह एक शुरुआत हैं। अगर आप साथ रहते हैं, तो वह प्रगति हैं। और यदि आप साथ काम करते हैं, तो वह सफलता हैं।
28. आपके पास पड़ी हर चीज को या तो आप यूज़ कीजिये या लूज कीजिये।
29. अगर आप सोचते हैं कि “मैं कर सकता हूँ” और यदि आप सोचते हैं कि “मैं नहीं कर सकता”। आप दोनों तरह से सही हैं।
30. वो एक तुच्छ व्यवसाय हैं जो केवल पैसा बनाना जानता हैं।
31. आपके द्वारा की गयी गलती भी आपके लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जरूरी हो सकती हैं।
हेनरी फोर्ड

शुक्रवार, १७ मार्च, २०१७


असम्भव किन्तु सत्य – गोवा के बोम जीसस चर्च में 460 सालों से जीवित है एक मृत शरीर

किसी भी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके मृत शरीर का शीघ्र-अतिशीघ्र अंतिम संस्कार कर दिया जाता है, ताकि शरीर सडऩे की प्रक्रिया प्रारंभ न हो और बदबू न आए। पुरानी कुछ सभय्ताओ में शव को संरक्षित करके ममी बना दी जाती थी ताकि शव सदियो तक खराब ना हो। लेकिन क्या यह सम्भव है कि बिना संरक्षित किए कोई शव सदियो तक वेसा ही तरोताजा बना रहे ? विज्ञान के नजरिये से तो ऐसा सम्भव नहीं है।  लेकिन इस संसार में बहुत सी ऐसी घटनाये है जहा विज्ञान के तर्क फेल हो जाते है।  ऐसा ही कुछ ओल्ड गोवा के ‘बेसिलिका ऑव बोम जीसस’ (Basilica of  Bom Jesus ) चर्च में रखे संत फ्रांसिस जेवियर ( St Francis Xavier) के मृत शारीर के साथ है।  यह जानकर आप आश्चर्यचकित रह जाएंगे कि यह शव विगत 460 वर्षों से बिना किसी लेप या मसाले के आज भी एकदम तरोताजा है।

संत फ्रांसिस जेवियर का मृत शारीर

जी हां! यह बिल्कुल सच है कि ओल्ड गोवा के ‘बेसिलिका ऑव बोम जीसस’ (Basilica of  Bom Jesus )में रखा हुआ, संत फ्रांसिस जेवियर ( St Francis Xavier) का मृत शरीर आज भी सामान्य अवस्था में रखा है। विज्ञान की इतनी प्रगति के बाद भी इस रहस्य को पता लगाने में वैज्ञानिक असफल रहे हैं। संत का शरीर यथावत रहना, आधुनिक विज्ञान के लिए चुनौती से कम नहीं है।

संत फ्रांसिस जेवियर (St Francis Xavier) :-
कैथोलिक संप्रदाय के लोग संत फ्रांसिस जेवियर (St Francis Xavier) का नाम आदर और सम्मान से लेते हैं। संत का जन्म स्पेन के एक राजघराने में हुआ था और उनका वास्तविक नाम ‘फ्रांसिस्को द जेवियर जासूस था, लेकिन उन्होंने घर त्यागकर कैथोलिक धर्म का प्रचार करने का दृढ़ निश्चय कर लिया और धर्म प्रचारक होने के कारण उनका नाम संत फ्रांसिस हो गया। संत फ्रांसिस जेवियर वे अलौकिक चमत्कारी शक्तियों के कारण विख्यात हो गए। गोवा की राजधानी पणजी से दस किलोमीटर दूर ओल्ड गोवा है, जिसे कालांतर में राजधानी होने का गौरव प्राप्त है। उस समय इसे ‘पूर्व का वेनिस’ कहा जाता था। इस नगर से संत का गहरा लगाव था और उन्होंने यहीं अपनी शरण स्थली बना ली।

संत फ्रांसिस जेवियर

रोम के पोप का प्रतिनिधि होने के कारण उन्होंने धर्म प्रचार का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया। उन्होंने पूर्व की जोखिम भरी समुद्री यात्रा 1551 से आरंभ की। इस यात्रा के दौरान वे  मोजाविक, मालिंदी (केन्या), सोक्रेता होते हुए गोवा पहुंचे थे। ओल्ड गोवा को अपना स्थायी निवास स्थान बनाकर काफी समय तक आसपास के क्षेत्रों में धर्म प्रचार किया।

बेसिलिका ऑव बोम जीसस चर्च के अंदर का दृश्य
इसी को केंद्र बनाकर उन्होंने कई देशों की यात्रा की और कैथोलिक धर्म का प्रचार किया। प्रचार के दौरान ही संत की मृत्यु 3 दिसंबर, 1552 को सांकियान द्वीप (चीन) में हो गई। बाद में मृत शरीर को कॉफिन में रखकर मलक्का ले जाया गया। अंतिम संस्कार के चार माह बाद उनके शिष्य ने श्रद्धा सुमन अर्पित करने के लिए संत के ताबूत को खोला। ताबूत खुलने पर संत के शिष्य भौचक्के रह गए कि संत का शरीर तो यथावत बना है। इसे दैवीय शक्ति का चमत्कार मानकर वह संत के मृत शरीर को उनकी कर्मस्थली गोवा ले आए। सर्वप्रथम संत के मृत शरीर को संत पॉल कॉलेज में रखा गया। इसके बाद, संत के मृत शरीर को वहां से हटाकर 1613 में ‘प्रोफेस्ड हाउस ऑव केम जीसस’ में रखा गया। संत के मृत शरीर को चांदी की एक बड़ी मंजूषा में रखकर ‘बेसिलिका ऑव बोम जीसस’ ( Basilica of  Bom Jesus ) के चैपल’ में प्रतिष्ठित कर दिया गया।
संत फ्रांसिस जेवियर का मृत शारीर
संत के मृत शरीर को कई बार अंग-भंग किया जा चुका है। 1553 में जब एक सेवक उनके मृत शरीर को सिंकियान से मलक्का ले जा रहा था तो जहाज के कप्तान को प्रमाण देने के लिए उनके घुटने का मांस नोंच लिया। 1554 में एक पुर्तगाली महिला यात्री ने उनकी एड़ी का मांस काटकर स्मृति के रूप में उनके पवित्र अवशेष अपने साथ पुर्तगाल ले गई। संत के पैर की एड़ी अलग हो गई, जिसे वेसिलिका के ‘ऐक्राइटी’ में एक क्रिस्टल पात्र में रखा गया। 1695 में संत की भुजा के भाग को रोम भेजा गया, जिसे ‘चर्च ऑफ गेसू’ में प्रतिष्ठित किया गया। बाएं हाथ का कुछ हिस्सा 1619 में जापान के ‘जेसुएट प्रॉविंस’ में प्रतिष्ठित किया गया। पेट का कुछ भाग निकालकर विभिन्न स्थानों पर स्मृति अवशेष के लिए भेजा गया। संत के मृत शरीर को लोगों के दर्शनार्थ सर्वप्रथम 1662 में खुले रूप में रखा गया। वर्तमान में समय समय पर संत का मृत शरीर वेसिलिका हॉल के खुले प्लेटफॉर्म पर आमजन के दर्शन के लिए रखा जाता है।